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करुणा के अमर देवता
प्रकृति की ओर से एक के बाद एक आघात धीरे-धीरे प्रकृति में शान्त सुषमा का निर्माण हो रहा था कि-वि० सं० १९६० के वर्ष में शस्य-श्यामला मालव धरा को प्लेग की महामारी ने झकझोर दिया। कई परिवारों के नामोनिशान मिट गये, कई गांव खेड़े उजड़ गये, कई बहन-बेटियों का सिन्दूर लुट गया, राजमहलों से झोपड़ियों तक करुण क्रन्दन की ध्वनियां सुनाई दे रही थीं। इस महामारी से हमारे चरित्रनायक का परिवार भी बच नहीं सका । प्रथम दिवस में आप श्री के बड़े पिता श्री माणकचन्द जी साहब, जन्मदात्री माता फूली एवं छोटी बहन बाला का निधन हुआ। दूसरे आक्रमण में आप श्री के पिता रतीचन्द जी, लघुभ्राता भागीरथ एवं छोटी बहन लक्ष्मी जाती रही। तीसरे आक्रमण में आपके ज्येष्ठ भ्राता कालुलालजी का प्राणान्त हुआ और चौथे आक्रमण में काल क्र र ने आपके ज्येष्ठ भ्राता भेरूलाल जी को अपना निशाना बनाया। तदनुसार हमारे चारित्रनायक के जंघा पर भी गाँठ उभर आयी थी। परन्तु ऐसा कहा जाता है"रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि" इस प्रकार हमारे चरित्रनायक बाल-बाल बच गये।
___माता-पिता के वरद-हस्त उठ जाने पर उन सन्तानों पर क्या-क्या गुजरती है ? यह भुक्तभोगी सन्तान ही जान सकती है। बड़े भाई केशरीमल और कस्तूरचन्द जी अभी-अभी काफी लघु वय में से गुजर रहे थे। फिर भी प्रकृति की ओर से आये हुए वज्र से कठोर आघात सहने पड़े। पर न हतोत्साही बने और न अपने लक्ष्य से डिगे। आवश्यक पढ़ाई-लिखाई करने के पश्चात् व्यापारी कार्यों में जुट गये। ठीक तरह से कमाई करने लगे।
श्री खूबचन्द जी महाराज के प्रथम दर्शन पं० प्रवर श्री खूबचन्द जी महाराज एक शान्तमूर्ति, आदर्श त्यागी, आगमों के ज्ञाता, महान् तेजस्वी मुनि थे। उनकी सौम्य और शान्त मुद्रा बड़े-बड़े विद्वानों को एवं प्रतिवादियों को एकक्षण में स्तब्ध कर देती थी। अपने आचार-विचार व्यवहार में जितने आप कठोर थे उतने ही दूसरों के लिए मृदु भी थे । सीमित वस्त्र अल्प उपधि के द्वारा वे अपने संयम-पथ पर गतिशील रहे। एतदर्थ समाज में उनका अच्छा प्रभाव था। विरोधी पक्ष भी उनके आचार-विचार की भूरि-भूरि प्रशंसा किये बिना नहीं रहता था। जिस ओर भी आप चल पड़ते, लोग स्वागत में पलक-पांवड़े बिछा देते थे। आत्मभाव में लीन रहने वाले ये प्रतिभा-सम्पन्न साधक सं० १९६२ का वर्षावास जब जावरा करने के लिए पधारे तो घर-घर और गली-गली में हर्ष का वातावरण छा गया । दर्शनों के लिए नर-नारी इस प्रकार दौड़ पड़े
धाये धाम काम सब त्यागे। मनहूँ रंक निधि लूटन लागे ।।
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