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। श्री रमेश मुनि
[साहित्यरत्न, सिद्धान्ताचार्य]
करुणा के अमर देव ता
मालवरत्न पूज्यगुरुदेव उपाध्याय श्री कस्तूरचन्द जी महाराज
भारतवर्ष का लोक-जीवन वैदिक एवं श्रमण
संस्कृति से सदैव प्रभावित रहा है । आज भी हमारा देश, जो जगद्गुरु कहलाता है, वह अपनी-अपनी शैली से शाश्वत धर्म का पोषण करने वाली इन दोनों संस्कृतियों का ही प्रताप है । शाश्वत धर्म के दो पहलू हैंएक शुभ में प्रवृत्ति और दूसरा अशुभ से निवृत्ति। वैदिक संस्कृति शुभ में प्रवृत्ति की प्रधानता पर खड़ी हुई है तो श्रमण संस्कृति अशुभ से निवृत्ति पर विशेष जोर देती है । वैदिक संस्कृति का आधार वेद तथा तत्सम्बन्धित उनका अनुसरण करने वाले आचार्यों के ब्राह्मण, स्मृति आदि ग्रन्थ हैं। श्रमण-संस्कृति का आधार निर्ग्रन्थ गुरुओं के प्रवचन हैं । वेदों की माता गायत्री है, जिससे बुद्धि में सत्प्रेरणा मांगी जाती है और प्रवचनों की माता समिति-गुप्ति है। जिससे मन, वचन और काया के समस्त व्यवहारों पर अनुशासन किया जाता है। वैदिक संस्कृति सम्पूर्ण निवृत्ति का निषेध करती रहती है। जिससे मानव में मानवता बनी रहे और श्रमण संस्कृति अन्धाधुन्ध प्रवृत्ति पर अंकुश रखती है, जिससे मानव दानव बनने से बचता रहे।
व्यक्तित्व
कृतित्व
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