________________
२१. ५.६]
हिन्दी अनुवाद होनेपर वह आसन्न भव्य विद्याधर राजा दसवें भवमें तीर्थकर होगा। उसका जेसा भोगाशय है उसे छिपाऊँगा नहीं, उसका दुर्योदपन तुम्हें बताऊँगा। पश्चिम विदेहके गन्धिल्ल देशमें भयसे रहित सिंहपुरमें श्रीका आश्रय श्रीषेण नामका राजा था जो अपनी पत्नी सुन्दरीदेवीको पुलक उत्पन्न करता था। उसका पहला पुत्र जयवर्मा हुआ और दूसरा श्रीवर्मा जो मनुष्योंके द्वारा संस्तुत था। वह अपने माता-पिताके मनको अच्छा लगता और समस्त परिजन उसे चाहते।
पत्ता-सुभटत्व और बुद्धिके अशेष बुधपनको समुद्र के पानी में डाल दो। गुणगणको क्या माना जाता है, और सज्जनका वर्णन किया जाता है ? संसारमें पुण्य ही भला होता है ।।४।।
राज्यमें रति छोड़ते हुए नत लेते और परमगति प्राप्त करते हुए राजाने एक बात बहुत बुरी की-अपने छोटे बेटेको राज्य दे दिया। तब जयवर्माने अपने मनमें विचार किया कि देवके नियन्त्रणको कोन ठुकरा सकता है। देवहीनका सब कुछ चंचल होता है। देवहीनके कार्य में सारा संसार ठंडा होता है, देवहीनके प्रणाम करनेपर भी कौन गिनता है, निर्देवका कहा हुआ कोन सुनता है, देवहीनके लिए भरा हुआ सरोवर सूख जाता है। भाग्यहीनके लिए भाई भी शत्रु हो जाता है, देवहीनके लिए देवता भी वर नहीं देते। उसके रोगके प्रसारको दवाई भी नहीं रोकती। हाथमें आया हुआ सोना भी गिर जाता है। देवहीनके घर और गृहिणी दोनों नष्ट हो जाते हैं। माता-पिता भी स्नेह नहीं करते। उद्यम करनेके लिए वह अपना दमन करता है लेकिन क्या देवहीन व्यक्ति के पास लक्ष्मी जाती है।
घत्ता-चाहे वह आकाश लांघे चाहे पहाड़की शरण ले, वह जो जो करता है वह सब निष्फल जाता है। शरीरको नष्ट करनेवाले व्यवसापसे क्या ? देव ही सबसे बड़ा होता है ? ||५||
यह सोचता हुआ अपनी निन्दा करता हुआ, वैराग्य धारण करता हुआ कामदेवको नष्ट करता हमा, पितासे कहता हुआ लक्ष्मीके स्वादको नष्ट करता हुआ जो कामदेवसे उत्पन्न है, सदेव सबका अभिलषधीय है, जो यशसे निर्मल है, जो माधाके द्वारा जीता गया है, दयालुओं को शान्त