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हिन्दी अनुवाद नहीं आया। यह देखकर वर अपने मन में विचार करता है कि इसको तो मैंने कहीं भोगा इसी प्रकार कहीं पत्थरोंसे प्रताड़ित किया गया है। इसी प्रकार कहीं खरपवनसे मोड़ा गया इसी प्रकार कहीं घूलसमूहसे ढका गया हूँ, इसी प्रकार कहीं में दुःससे कोपा हूँ। इस पर विचारकर उसे नरकको याद आ गयी और उसने यमधरत्रीके पास जाकर प्रत ग्रहण कर सिर तप करके वह ब्रह्मेन्द्र हुआ। जीवके धर्म हो सबसे आगे रहता है।
घता-बड़े-बड़े लोग भी गुरुको नमस्कार करते हैं। चन्द्र-सूर्य और देवोंके द्वारा वन्द ब्रह्मसुरेन्द्रने भी देव श्रोषरकी धर्मगुरुके रूपमें पूजा को ॥१४॥
श्रीधर भी स्वर्गसे अपना शरीर छोड़कर चन्द्रमा और सूर्योके द्वीप इस जम्बूदीपमें, : इन्द्र जिन तीर्थकरको ले गया है, ऐसे सुमेरु पर्वतको पूर्व दिशामें विशाल आकारवाले विदेह । को विस्तीर्ण सोमाओंवाली सुसीमा नगरी में शुभदृष्टि नाभका राजा है, जिसके युद्ध में संग्राम नहीं है, जो क्रोधका संवरण करता है, लक्ष्मीरूपी वधूको धारण करता है, जो कामका परि करता है, परस्त्रियोंमें रतिसे दूर रहता है । जो मानका निग्रह करता है, मृदुताको धारण क है, जिसने लोगों में हर्ष पैदा किया है, परन्तु जो स्वयं अधिक हर्ष नहीं करता, जिसने लोभको किया है, जिसने पुरुषार्थ का बादर किया है, जिसने अहंकारको नष्ट कर दिया है, जिसने । मनको स्थिर बना लिया है।
पत्ता-जो रूप, सौभाग्य और गुणमें जैसे उर्वशो या इन्द्राणो यो ऐसी उसकी नामको सुन्दर रानीका वर्णन हम-से लोगों के द्वारा कैसे किया जा सकता है ? ॥१५॥
वह देव ( ब्रह्मन्द्र ) स्वर्ग छोड़कर, उसके गर्भस पुत्र पैदा हुआ। सुदिषि नामवे युवकसे, जो मानो साक्षात् कामदेव था, मुनियों के भी मनमें उन्माद उत्पन्न करनेवाली अभ चक्रवर्तीको अपनो गतिसे हाथोको जीतनेवाली मनोरमा नामकी प्रणयिनी पुत्रोसे विव लिया। जो स्वयंप्रम नामका देव श्रीमतीका जीव था, अनेक पुष्योंका धारण करनेवा