________________
३१. ६.११] हिन्दी अनुवाद
२८९ पत्ता-जिसने जीवकुलकी हिसा की है, जिसने असत्य वचन कहा है। जिसने परपनका अपहरण किया है, और जिसका मन परवघूमें अनुरक्त है ॥४॥
"जो लोभ कषायसे अभिभूत हैं, वह कौन है, जो दुःखसे सन्तप्त नहीं हुआ।" मैंने कहा, "हे पिता, मैंने यही व्रत मुनिके चरणोंकी वन्दना करके प्रहण किये हैं। ये लोग जिस प्रकार बतोंसे विमुख होकर बंधे हुए हैं, हे पिता, उसी प्रकार में रागसे बंधा हुआ हूँ।" यह सुनकर मेरे द्वारा स्वीकृत अणुव्रतोंको पिताने इच्छा की। हम दोनों नगरके उद्यानवरमें गये और विश्वके आनन्द करनेवाले मुनिको प्रणाम किया। उनके वचनसे वणिग्वरको उपशान्त किया। वह जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट गृहस्य धर्मका पालन करने लगा। दरिखसे क्या ? अच्छा है में सप करूं । प्रास मनुष्य जन्मको क्यों नष्ट करूं? मैंने इस प्रकार न्यायसे कहा, और पिताके हाथसे अपनेको मुक्त कर लिया । त्रस और स्थावर जीवोंके प्रति दया करनेवाले मैंने पांच महावतोंको ग्रहण कर लिया।
धत्ता-जिनको सेवा सुर और नर करते हैं ऐसे जिनदेवके पादमूलमें असह्य दुःखोसे निरन्तर भरपूर, अपने जन्मान्तरोंको मैंने सुना ।।५||
मुप्त (भीम) से मुनिनापने कहा कि तुमने वनमें एक जोड़े (सुकान्त और रति वेगा) को मारा है रात्रिमें । जब तुम अप्रिय विनाश और कलहके प्रिय भवदेव थे। फिर तुमने उस जोड़ेको देखा और बिलाव होकर खा लिया। और जब वे लोग तप तप रहे थे, तब तुमने पकड़कर उन्हें आगमें साल दिया। उस समय तुम कोतवाल थे। औषधिके गुणसे तुम शीघ्र नष्ट हो गये। राजा गुणपालने तुम्हें खोजा और किसी प्रकार तुम्हें यमपुरी नहीं भेजा । तुमने जाकर किसी दूसरी जगह अपना घर बसाया । वह राजा गुणपाल जर प्रवजित हो गया तो तुमने पुनः नगर में प्रवेश किया और अंजनगुणसे तुमने दृष्टिके संचारको रोक लिया, (अदृश्य हो गये) तथा लोगोंका खूब धन चुराया। पोरने राजासे पुकार मचायी। उसने आरक्षक कुलकी निन्दा को। तब आरक्षक कुलने प्रतिजनको सिद्धि कर लो। तुम विधुच्चोरको उन्होंने देख लिया और पकड़ लिया । तुमने धनकी जगह बता दी।
२-३७