Book Title: Mahapurana Part 2
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 448
________________ ३७. १८. १३] हिन्दी अनुवाद १७ ___ अरहन्सके द्वारा सिद्धान्तपर आश्रित चौदह पूर्व प्रकाशित किये गये हैं। चौदह मल हैं, चित्तग्रन्थ भी चौदह हैं, चौदह कुलकर, जो मानव संस्थाका निर्माण करनेवाले हैं। गुणियोंके द्वारा जिनका नाम लिया जाता है, ऐसे चौदह रत्न बताये गये हैं। भूतग्राम भी चौदह बताये गये हैं। कर्मभूमिका विभाग पन्द्रह है, पन्द्रह प्रमादोंका भी उपदेश किया गया है। दुःखका नाश करनेवाले सोलह वचन होते हैं, जिनके जन्मके कारण भी सोलह होते हैं। संयम सत्तरह होते हैं, दोष अठारह हैं, नाथ-ध्यान सन्नीस होते हैं, कुमुनियोंको डरानेवाले बाईस परिग्रह होते हैं "नाथ-ध्यान तेईस होते हैं । तीर्थकर ईश चौबीस होते हैं, मुनिपदको प्राप्त पच्चोस होते हैं; वसुधाके भेद छब्बीस हैं, यतिवरके भेद करनेवाले गुण सत्ताईस हैं। आचार कल्पके अट्ठाईस भेद हैं, और अर्धसूत्रोंके उनतीस । मोहरूपो मन्दिरके तीस भेद कहे गये हैं। पत्ता-कुटिल और आकुंचित केशवाले जिनेश्वरने कर्मोके इकतीस विकार-रस कहे हैं, और मुनीश्वरोंके लिए बत्तीस उपदेश ॥१७॥ १८ जो जल, थल, नभ, पातालमूल और तिजगके भीतर स्थूल और सूक्ष्म है, प्रणतसिर उसे पूछते हुए भरतेश्वरके लिए आदि जिनने सब बताया। गुरुकी वन्दना कर, और दुष्ट पापकी निन्दा कर भरत अपने नगरके लिए गया, और उसने अपने घरमें प्रवेश किया। रात्रि में सोते हुए जिनवरके चरण-कमलोंके भक्त भरतने स्वप्न देखा कि जिसका शिस्त्र र सुअरको दाबसे खण्डित है, ऐसा सुमेरुपर्वत धरतीपर लुढ़क रहा है। सवेरे भरतने यह स्वजनोंसे कहा। हितकारी पुरोहितने, वक्षःस्थलके हारपर गिरती हुई, नयनोंसे झरती हुई अश्रुबिन्दुओंको धारा द्वारा स्वप्नका विवरण बता दिया। तृष्णारूपी निशाचरीके द्वारा विलुप्त, कालरूपी महासर्पके मुखमें पड़ते हुए, दोनअज्ञानी लोकका उद्धार कर, जब एक हजार वर्षसे कम चौदह दिन शेष बचे, सब एक लाख पूर्व धरतीपर विहार कर ज्ञाननयन ऋषभनाथ कैलास पर्वतपर पहुंचे। पवित्र वनके पुष्पोंके आमोदसे मधुर प्रसिद्ध सिद्ध शिखरपर आरोहण कर धत्ता-काम और क्रोधका नाश करनेवाले जिनाधिप ऋषभ दस हजार महामुनियों के साथ पूर्णिमाके दिन पर्यकासन बांधकर बैठ गये ॥१८॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463