Book Title: Mahapurana Part 2
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 454
________________ ३७. २५. १४] हिन्दी अनुवाद ४३१ "विश्वरूपी बालकके पिता, तुम मेरे पिता हो । तुम्हारे बिना कलाविकल्प कौन बतायेगा? तुम्हारे बिना इष्ट प्रजाका पालन कौन करेगा? महान तपश्चरणको निष्ठा कौन सहन करेगा? तुम्हारे बिना तत्त्वका रहस्य कौन जानेगा? हे देव, देवोंका देव कौन होगा? हे स्वामी, तुम्हारे बिना यह त्रिलोक अनाथ हो गया।" तब गणधर कहते हैं--"तुम मत शोक करो। यह जो मर गया, वह मरकर गर्भ में बसता है, छीजता है, भेदको प्राप्त होता है और दुःखसे पीड़ित होकर चिल्लाता है । तुम्हारा पिता, हे देव, महान् तीर्थकर, अजर-अमर परमात्मा हो गये हैं। इन्द्रने भी उससे यही कहा कि जो स्मरण करनेवालोंके क्लेशका नाश करते हैं, तुम पिता कहकर, उनके लिए शोक क्यों करते हो? जो तमःसमूहका नाश कर सिद्ध हो गये हैं। अरहन्तको स्मरण करनेवालोंका धर्म होता है, तुम मोहके द्वारा दुष्कर्मका संचय मत करो।" यह सुनकर राजा भरतने बलपूर्वक पिताके दुःखको सहन किया। पत्ता-परमजिनेश्वरको बन्दना कर इन्द्र देवों सहित स्वर्ग चला गया, तथा माण्डलीक और महामाण्डलीकपति भरतेश्वर साकेत चला गया ॥२४॥ २५ Ratants सुख-दाको कारणको जङ्ग कारेवर समप्रभ, राजा श्रेयांस और देव बाहुबलि भी निर्वाणको प्राप्त हुए, और त्रिलोकके उत्तमांग आठवीं धरतीको भूमिपर तीनों स्थित हो गये। मदमोहरूपी महारोगका नाश करनेवाले, उद्धार करनेवाले, गणधरोंके साथ, पूर्वार्जित कर्मरजको नाश करनेवाले गण वृषभसेन, समय बीतनेपर मोक्ष गये। यहीं, जहाँ उपवनमें विद्यापरिया रमण करती हैं, ऐसे साकेत नगरमें भी केशरविलेप लगाते हुए, दर्पणतलमें मुख देखते हुए भरतने एक सफेद बाल देखकर निरवशेष मनुष्य जन्मकी निन्दा कर, नगर पाकर परखर प्रचर देश और अशेष धरती अपने पुत्रको समर्पित कर प्राणिमात्रमें कृपाका प्रसार करनेवाले उसने तपश्चरण स्वीकार कर लिया। उखाड़े हुए बाल जबतक धरतीपर गिरें, इतने में उसे केवलशान प्राप्त हो गया। वह स्वपरका रक्षक परमेष्ठी हो गया। चारों निकायोंके देवोंके द्वारा स्तूयमान पह भव्यजनोंके मनके मोहजालको नष्ट कर और लम्बे समय तक धरतीपर विहार कर पता-विशुद्धमति विविध कर्मबन्धनोंसे रहित, नागों, किन्नरों, प्रवर नरों और ज्योतिषगणोंके द्वारा संस्तुत भरत भी मोक्ष चले गये ।।२५|| इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुण-अलंकारोंसे घुक महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा षिरचित्त एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सगणधर ऋषभनाथ भरत निर्वाण गमननामका सैंतीसवाँ परिच्छेद समास हुआ men

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