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३६.१३. ११] हिन्दी अनुवाद
३९९ १२ यह चौंतीस अतिशयोंको धारण करनेवाले केवलज्ञानी तीर्थकर हो गये। गुणोंसे महान् आदरणीय गुणपाल देवोंके साथ धरतीपर विहार करते हैं। भव्यरूपी कमलोंको सम्बोषित करनेवाले हे जिनदेवरूपी सूर्य, आप मुझे शीघ्र मोक्ष प्रदान करें। बयासी लाख वर्ष पूर्व तक, पर्वतों सहित समस्त घरतीका उपभोग कर श्रीपाल भी खिले हुए बालकमलके समान मुखवाले बालकके सिरपर पट्ट बांधकर जन्म, जरा और मुत्युका विचार कर अपने पुत्रोंके साथ तीर्थकर गुणपालको शरणमें चले गये। उसके साथ सोलह हजार गम्भीर धोषवाले राजा प्रवजित हो गये। संसारके घोरभारसे विरक्त होकर वसुपाल राजा भी प्रवजित हो गया। यह हजारों पुत्रोंके साथ शोभित है, वैसे संयम और व्रतको कौन धारण कर सकता है। परमार्थको जाननेवाली पचास हजार रानियां भी रतिको छोड़कर, धर्मको जानती हुई, सुखावतीके साथ तपमें लीन हो गयीं।
धत्ता-वह भी तपश्चरण कर, और मरकर वहाँसे स्वर्गमें इन्द्र हुई। कोको नाश करनेवाले जिनवरके धमके प्रभावसे ऐश्वयं आगे-आगे दौड़ता है ।।१२।।
जहाँ न भूल है, न प्यास है और न नींद है, जहां शरीर सात धातुओंसे रचित नहीं है, न शत्रु है, न मित्र है, न गृहिणी है, न घर है, जहाँ न लोभ है और न कोप है, जहां न काम है, न ज्वर है. न मान है,न माया है,न मोह है, न मद है, जहाँ जीव केवल ज्ञानमय है, जहां पांचों इन्द्रियों और मन भी नहीं हैं, समय आनेपर श्रीपाल भी वहां पहुंचा। वसुपाल, गुणपाल तथा परम अरहन्त भी मेरी रतिका विराम करें। इस प्रकार अपना कथान्तर सुनकर प्रेमके वशसे अपनी आँखोंको घुमानेवाली उस सुलोचनाको सन्तोष देनेके लिए जयकुमारने उसे आलिंगन दिया । उसने कहा कि हे देवो, मैं तुम्हें हृदयमें धारण करता हूँ। मैं विद्याधरके जन्मान्तरकी याद करता हूं। उसी अवसरपर हर्षसे उछलती हुई पूर्व जन्मको विद्याएं आयीं, गान्धारी, गौरी और प्रज्ञप्ति जो आकाशतलमें विहार करनेकी प्रवृत्तिवाली थीं । अपनी शोभासे कमलश्रीको जोतनेवाली प्रियंगुश्री उसे देखकर कहती है
__पत्ता-मैं समझती हूँ यह भामिनी अत्यन्त मायाविनी और प्रियको चापलूसी करनेवाली है । यह दुष्ट दुराचारिणी झूठमूठ कथान्तर और भवजन्म-परम्परा कहती है ।।१।।