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३७.१४.१५]
हिन्दी अनुवाद इकहत्तरवें गणधर हुए। स्वयंसिद्ध आदरणीय, दुःखका नाश करनेवाले वह तीनों लोकोंके अग्रवास ( मोक्ष ) में स्थित हुए। उनकी गृहिणी सुलोचना अच्युत स्वर्गमें देवेन्द्र हुई। समयके साथ जिनवरेन्द्र धरतीपर विहार करते हैं, वह अनन्त अनाहारके आभूषणसे भूषित हैं। उनके साथ चलता हुमा सुरजन दिखाई देता है। आकाशसे फूलोंकी वर्षा होतो है, चौसठ चमर कुराये जाते हैं, बहू, जहाँ भो पैर रखते हैं यहां-वहाँ कमल होते हैं, गुरुभक्तिसे विमल देवेन्द्र उन्हें जोड़ता है। वह जहाँ चलते हैं, वहाँ किसीको दुःख नहीं होता। वह जहाँ ठहरते हैं, वहां अशोक वृक्ष होता है, सिंहासन और तीन छत्र होते हैं और वे नायको त्रिभुवनप्रभुता घोषित करते हैं।
घत्ता-जिनवरका कहा हुआ समस्त जीयोंकी भाषाके अंगस्वरूप परिणमित हो जाता है। सुअर, सांभरों, मृग, मातंग और अश्वोंके द्वारा यह जान लिया जाता है" ||१३||
___ आकाशमें बजती हुई दुन्दुभि सुनाई देती है; पुलकित होकर लोक प्रणाम करता है। उनके अर्घ-पात्रको देश-देशके राजा उठाते हैं, प्रचुर' कुसुम गन्धसे मिली हुई हवा बहती है। नवसूर्य मण्डलके समान आभावाला भामण्डल तथा अनेक प्रकार साधु साथ चलते हैं। पूर्वागको पारण करनेवाला, तपसे कृश शरीर, मनःपर्यय ज्ञानवाला, स्वभादसे धीर, देशावधि और परमावधिज्ञानसे युक्त केवली, केवलज्ञानरूपी सूर्यसे तेजस्वी, नवदीक्षित, शिक्षक, शान्त और दांत । विक्रियाऋद्धिसे बहु-ऋद्धियोंसे सम्पन्न । इन्द्रियोंके नाशक अक्षयपदमें इच्छा रखनेवाला और केतव आगमवादियों में सिंह । वे जहां जाते हैं, वहां भव्य चलते हैं, वे जहाँ है, वहां सब रहते हैं। मानव, तिर्यंच, असंख्य सुरवर तथा चारों दिशाओं में शंखोंकी हूँ-हूँ पनि होने लगी। झालरें - झं ध्वनि करतो हैं, नर और अमरोंकी सुन्दरियाँ नृत्य करती हैं। तुम्बुर और नारद मीठा गान करते हैं । भरतने पिता जिनको वहाँ बैठे हुए देखा ।
__ महोश्वर भरतने धर्म पूछा। निष्कलुष परम केवली परमपदमें स्थित वह, जो जैसा देखते हैं उसको उसी प्रकारसे वह कहते हैं ।।१४।।