________________
३६. १९. १३ ]
हिन्दी अनुवाद
४०५
१८
उनसे भी जयकुमारके शोलको पवित्रता नष्ट नहीं हुई । अपने हृदयमें जयने महान् शान्ति धारण की। सुलोचना भी अपना मन नियमित करके स्थित हो गयी। तब भी दुष्ट लोक नहीं समझ सका । तब उस पुंश्चलीको समझ में आया कि मैंने व्यधं युद्ध क्यों किया। यदि मन्दराचल अपने स्थानसे चलित होता है, जो तुम्हारो (जयकुमारकी ) चित्तवृत्ति पलित हो सकती है। मैंने तुम्हें जो पीड़ा पहुँचायी है, और विद्या भेजकर कष्ट दिया है, उससे क्रुद्ध मत होना। यह कहकर वह विद्याधरो चली गयी। शत्रुरूपी हरिणीके सिंह उसकी देवोंने पूजा की। मधुर दुन्दुभि स्वर उछल पड़ा । रतिप्रम नामका सुरश्रेष्ठ उससे आकर मिला। उसने कहा कि इन्द्र के द्वारा
त मैंने तम्हारे पवित्रभावका अनुसन्धान कर लिया। सघन स्तनोंवालो जो तुम्हें रोककर स्थित थो वह विद्याधरो नहीं, अप्सरा थी, जो तुम्हारे शोलको परोक्षा करनेके लिए भेजी गयी यो। लेकिन तुमने अपने मनमें उसे अपनी माताके समान माना।
घत्ता-हे कुरुकुलरूपी आकाशके चन्द्र, इन्द्रियों को वशमें करनेवाले दसों दिग्गजोंको कंपानेवाले हे जयकुमार, संसारके भयका हरण करनेवाले तुम्हारे चारित्र्यको प्रशंसा किसके द्वारा नहीं की जाती ॥१८॥
प्रेषि
जो अच्छा लगे वह वर मांग लो। यह सुनकर वह श्रेष्ठ मनुष्य कहता है, "मैं ज्ञानको पवित्रता करनेवाला वर मांगता हूँ। मैं संसारका हरण करनेवाला वर मांगता हूँ। किसी दूसरे वरसे मुझे काम नहीं है । इन्द्र, चन्द्रमा और सूर्यका पतन होता है। जहां सुख कभी भी विचलित नहीं होता, जहां कामकी ज्वाला प्रज्वलित नहीं होती, जिनवरका पर वह मोक्ष मुझे पाहिए । मैं उसी वरसे सन्तुष्टि पा सकता है। इस प्रकार जयकुमार राजाके धरितकी वन्दना कर वह देव तुरन्त देवलोक चला गया। देवप्रशंसासे शोभित वधू और वर कैलास पर्वत पहुंचे। आकाशतलमें अपनो गति क्षीण कर वे रत्नोंसे निर्मित शिलातलपर स्थित हो गये। तब उन्होंने, स्वर्णदण्डोंके ताड़नसे सक्षम देव-दुन्दुभियोंका शब्द सुना। उस शब्द से आकर्षित होकर, वे दोनों वहाँ गये जहाँ महाऋतियोंसे सम्पन्न, देव गंगाकी जल लहरोंसे शीतल, भरत राजाके द्वारा निर्मित,
घसा-स्वर्णरचित मणिसमूहसे विजड़ित, जिनके पैरोंपर इन्द्रादि प्रणत है, जो दीवाक द्वारा संसारको दुराधाओंका दमन करनेवाले हैं ऐसे चौबीस जिनेश्वरोंके मन्दिरोंको देखा ॥१९॥