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३१. २१.५]
हिन्दी अनुवाद हे स्ववशिन, हम ही वे दोनों हैं । आपके द्वारा आहत होनेपर देव हुए और कहीं भी भ्रमण करते हए यहां आ गये और आपके चरणकमलोंकी वन्दना की।" तब मनिने अपनी निन्दा को-"Erहा! मैंने दुष्ट सोचा, हा हा मैंने दुष्ट चिन्ता की । हा-हा मैंने दुष्ट भाषण किया। हा-हा मैंने दुष्ट चेष्टाएं की। मैं क्षन्तव्य हूँ, मुझे निःशल्य बनाओ । इस समय किसीके भी साथ मेरा बैर नहीं है। जिस प्रकार तुम छोगोंके लिए उसी प्रकार त्रिजगके लिए मैंने क्षमा किया। इस समय मैं मुनि कहा जाता है।"
पत्ता--तब दूर हो गया है मत्सर जिसका ऐसा वह देव चमरों और अप्सराके साथ गुरुकी वन्दना कर स्वर्ग चला गया, वह जिनवरके मार्गसे ज्युत नहीं हुआ ||१९||
वह भीम मुनि धरतीपर विहार करते हुए वसुपालके नगरके शिवकर उद्यान पथमें आकर ठहर गये । यहाँ उनका अशेष मोह नष्ट हो गया। सुरवर भवनोंको कमानेवाला एक क्षणमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उनके एक छत्र और दो चामर थे। चारों ओरसे सुरवर झुक गये। पद्मासन विपुल मणिमण्डप और हेमोज्ज्वल धरतीमण्डल सोभित है। अपने स्वामोसे रहित, तथा एकसे एक विलक्षण चार व्यन्तर देवियां आयीं। उसी अवसरपर पवनसे उद्धत आठको आधी ( चार ) देवियां और आयीं। पतिके बिना, उन्होंने दर्शन किये और यतिसे पूछा कि उनका पति कौन होगा ? यतिने कहा कि इस नगरीमें मतिको मोहित करनेवाली तुम सुरदेवकी गृहिणियाँ थों। वसुषेण, वसुन्धरा, धारिणी और पृथ्वी। ये शुभ करनेवाली थीं । श्रीमती, बीतशोका, विमला और वसन्तिका ये चार उनको गृह दासियाँ थीं। इन आठोंने वनमें मुनिके पास पवित्र बत ग्रहण किये । कन्याएं मरकर अच्युत स्वर्गके इन्द्रकी शुभसूचित करनेवाली देवियां हुई।
पत्ता-सुरकामिनी रतिषणा, सुहाविनी सुसेना ( सुसीमा), कोमल हाथोंवाली सुखावती और सुप्रशस्त चित्रसेना ||२०||
२१ व्रत करनेवाली चारों दासियां भी वनदेबियां हुई । ( व्यन्तर देवियाँ हुई ), अनमें यक्षेश्वरी, चित्रवेगा, पनवती, धनश्री व्यन्तर देवियां आज भी दिव्यकुलमें उत्पन्न हुई हैं, यहाँ इनको आकाशतलमें देखो । ऋषिको दिये जाते हुए दानको सुरदेवने नहीं माना, उसकी अवहेलना की।