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३५.८.१२ हिन्दी अनुवाद
३७५ घत्ता--जिसके हृदयमें योद्धाका अहंकार नहीं है। मुझे हंसी आती है कि वह तुम महिला द्वारा रखा जाता है। वह तुम्हारे द्वारा कैसे रमण किया जायेगा।
वह कृशोदरी सुखावती कहती है कि हे धूमवेग ! जो तुमने कहा यह ठीक नहीं है। सांपकी मारको सांप.ही जानता है। यदि विद्याधरके साथ विद्याधर लड़ता है तो यह ठीक है। यह धरतीका निवासी है और तुम आकाशवारी। इसलिए विद्या छोड़कर तुम अपना हाथ फैलाओ। यदि यह तुझसे कुछ भी आशंका करता है, और उलटा मुंह करके थोड़ा भी कांपता है, यदि तुम इसके भुजबलसे नहीं मरते तो मैं जलतो आममें प्रवेश कर जाऊंगी। हे दुष्ट, तुझे चकनाचूर कर मैं हर्षसे नाचूँगी । शत्रुको मारनेवाली मैं कहती हूँ कि मैं शत्रुओंको मारनेवाली हूँ। आओ आओ मैं अपने स्वामीको नहीं छोड़ती । तीखे त्रिशूलसे तुम्हारे छातीके शरीरको छेद दूंगी। ऐसा कहकर धूमवेगने आक्रमण किया और तलवारसे अलंध्य दो टुकड़े कर दिये।
- घत्ता-तब जिनके हाथमें उठी हुई तलवार है ऐसी सुखावती दो हो गयी। और मारो. मारो कहती हुई युद्ध में समर्थ वह स्थित हो गयी ॥७।।
उसे देखकर सूर्य और इन्द्र भी अपने मनमें चौंक गये। वह सुभट भी मारता हुमा एक पलके लिए नहीं ताकता। वह पान्या भी दुनी-दुनी बढ़ती गयी। कन्यारूपमें उत्पन्न उस युद्ध में चमकती हुई तलवारोंसे घूमवेग चारों ओरसे घिर गया। तब विजयधोके लिए उत्कण्ठित, फड़कता हुआ, वह भी जम दो रूपोंमें स्थित हो गया तो राजा श्रीपालने कहा कि तुम आक्रमण मत करो। बहुतसे शत्रु पैदा हो जायेंगे । अपने कामका विचार करो। किसी बनान्तरमें मुझे छोड़ दा, युद्ध जोतनेपर फिर आ जाना। एक हृदय होकर तुम लड़ो। ओर शत्रुके सिर कमलीको तलवारसे खण्डित करो। तब उस मुग्धाने प्रियका पहाड़पर रख दिया। वह भी ककर वृक्षके नीचे अपना शरीर लम्बा करके लेट गया। जिसमें दूरसे सूर्यके प्रतापको रोक दिया गया है वृक्षके नीचे हाथोंसे लम्बे होते हुए राजा श्रीपालको उस विद्याधरीने देखा। मानो कामदेवने अपनी प्रत्यंचाका सुन्धान कर लिया हो ।
__ पत्ता-यह देखकर कामदेवके बाणोंसे आहत एक सीमन्तिनी यहाँ पहुंची। कुलमर्यादासे मुक्त वह स्पष्ट चापलूसीके शब्दोंमें बोली ।।८॥