________________
३६. ५.१३]
हिन्दी अनुवाद
स्नेह और दयासे परिपूर्ण वे घरमें ठहरा दिये गये। शीघ्र ही उन्होंने अभ्यागतोंका अतिथिसत्कार किया। नीचा मुख कर बैठी हुई वघूसे कुमारने कहा कि तुम्हारा मुख मलिन क्यों हैं ? धन एक बिजलोसे शोभा पाता है, और वन कोयलसे शोभित है। यहाँ में शोभित हूँ तुम्हारे एकके द्वारा । तब भी मुझे गुरुजनोंसे वचन करने होते हैं। इसलिए सज्जनोंके प्रति वरसल रखनेवाली तथा भ्रमरके समान नीले धुंघराले और कोमल बालोंवाली तुम मुझसे रूठो मत। इन शब्दोंसे जसके क्रोधका नियन्त्रण हो गया और उसका प्रेम सघन तथा सुन्दर हो उठा। इतने में प्रियकी वशीभूत बप्पिला आ गयो, विधुदव और विद्युत्वेगकी बहन भी आ गयी। अपने चंचल नेत्रोंसे हरितीको जीतनेवाली रतिकान्ता और मदनावती युवतियां भी आ गयीं। इस प्रकार उसने आठ हजार विद्याधर रानियोंसे विवाह किया। फिर बादमें उसने अनुपम भोगवाली विद्याधर पुषी मोचतीसे किसाहनिया . ::..:...
__ पत्ता-सेनापति, गुरुपति, अश्व-गज-स्त्रो-स्थपति और पुरोहितसे युक्त तथा आंखोंको रंजित करनेवाले सात जीवित रत्न उसे प्राप्त हुए ||४||
सुखावती क्रोधसे हैं करती है, और ईष्याक कारण प्रियके नगरमें प्रवेश नहीं करती। जिसकी वनश्री देवोंके द्वारा मान्य और वयं है ऐसे सुमेरु पर्वतपर घर बनाकर वह रहने लगी। ग्रह-दासियोंके द्वारा यशस्वतीका रूप बना लिया गया। एक औरने आकर राजासे निवेदन किया-“हे परमेश्वर ! वणिक कन्याका अपमान किया गया है, उसकी गृहदासीके रूपमें घरमें स्थापना की गयी है।" यह सुनकर राजा चला, अश्वोंके खुरोंकी धूल आकाशसे जा मिली। शीघ्र वह पतिभक्ता महासती सुखावतीके निवासपर पहुंचा। प्रिय शब्दोंमें वह इस प्रकार बोला कि उससे उस मुग्धाका मन कांप उठा । पतिके द्वारा ईर्ष्या करनेवाली वह शान्त कर दी गयो, उसने जाकर वणिक कन्याको नमस्कार किया। वह विद्याधरी ( सुखावती) इन्द्र के पराक्रमका हरण करनेवाली पुण्डरी किणी नगरी में जाकर स्थित हो गयी ( रहने लगी)। जिसका तप सुफलित है ऐसे उस राजाको आयुधशालामें चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई। वह चक्रवर्ती नौ निधियोंका स्वामी हो गया। हमारे-जैसा कुकवि उसका वर्णन केसे कर सकता है।
पत्ता-चन्द्रमाके समान रंगवाले ( सफेद ) और सुन्दर तलभागमें एकासन स्वीकार कर, यशस्वतीके साथ राजाने प्रसादपूर्वक सुख-दुःखकी बातें कीं ||५||