Book Title: Mahapurana Part 2
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 400
________________ हिन्दी अनुवाद ३७७ है पुरुष श्रेष्ठ ! दुःखसे प्रेरित तुम्हें यहां किसने लाकर डाल दिया। हे सुन्दर! और इसो तरह वृक्षसे तुम छोड़ दिये जाओ तो तुम नीचा मुँह किये हुए निश्चय ही गिर पड़ोगे। कसमसातो तुम्हारी हड्डियां टूट जायेंगी, सम्पूर्ण अंग चकनाचूर हो जायेंगे । राजलक्ष्मीको माननेवाले हे राजा, तुम मुझ चन्द्रमुखीको उपेक्षा न करो। तुम मुझे चाहो-चाहो, मैं तुम्हें धोखा न दूंगी और इस भयानक जंगलसे उद्धार करूंगी । तब वह कुमार बोला कि तुम खिन्न क्यों होतो हो। परपुरुषको अपना मन देते हुए शर्म नहीं आती। ये अच्छा है कि 'मैं इस कल्पवृक्षको डालपर ही सूख जाऊँ। परस्त्रीका मुख न देखूगा। मेरे अंग चट्टानपर नष्ट हो जायें, पर वे परस्त्रीके उरस्थलमें न लगेंगे। अच्छा है मेरे दांतोंको पंक्ति नष्ट हो जाये, वह दूसरेकी स्त्रीके बिम्बाधरोंको न काटे। अच्छा है केशभाग नष्ट हो जायें, पर वे दूसरेकी प्रेमिकाओं द्वारा न खोंचे जायें। अच्छा है इस वक्षस्थलको पक्षी खा जायें, लेकिन दूसरोंको स्त्रियोंके स्तनोंसे यह न रगड़ा जाये। धत्ता-अंधारण किये हुए भी हिलते रहते हैं। हृदय-विकारको प्राप्त होता है। और रातदिन सन्ताप बढ़ता रहता है। किन्तु दुष्ट प्रेमीको तृप्ति पूरी नहीं होती ॥९॥ वह गृहद्वारको निरुद्ध करता है और दुष्ट किसी पुंश्चल जोड़ेको एकड़ता है। ऐसा वह शीघ्र उठता है कि आलिंगन करके कण्ठश्लेष छोड़ता है। वह शोध उठता है और अपनी धोती पहनता है। इस प्रकार आशंकित मनवाला वह क्या क्रीडा करता है, केवल अपयशके धुएंसे अपनेको कलंकित करता है। और वह यदि किसी दूसरेसे मन्त्रणा करता है तो परस्त्री लम्पट अपने मन में विचार करता है तो वह कि इन विवेकशील लोगों द्वारा में जान लिया गया हूँ| इस समय अब 'मैं' किसके सहारे बचूं ? इस प्रकार परस्त्रीका रमण इस लोक और परलोकमें दुनय करनेवाला तथा अत्यन्त विद्रूप है। यदि परघरको स्वामिनी, रम्भा, उर्वशी और देवबाला भी हो तब भी मैं उसे पसन्द नहीं करता। यह सुनकर दूसरेके साथ रमण करनेवाली उस विद्याधरी स्त्रीने कुद्ध होकर श्रीपालके साथ प्रिय सखीको वनमें भेज दिया, और पेड़की डाल काटकर ऊपर डाल दी। पत्ता-जिसके हाथ-पैर और सिररूपी कमल थरथर कांप रहा है, ऐसे उस गिरते राजाको संकटकालमें सुरभवकी पुरजनीने अपने हाथों में ग्रहण कर लिया ॥१०॥ २-४८

Loading...

Page Navigation
1 ... 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463