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३२. १५.१४]
हिन्दी अनुवाद
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वह विद्याधरी पास आकर बैठ गयी। हाथ से अपने मन्त्रको ढककर वह कहती है कि यहाँ घोर तपकी सामथ्यसे हे कामदेवके वाण समूहका विस्तार करनेवाले, हे आदरणोय ! किसीका भी स्मरण नहीं होता। मैं भी स्नेहसे कहीं गयो तुम्हें देखती हूँ। पुण्यात्मा तुम्हारी रक्षा करती हूं। सब भी है देव विश्वास नहीं करना चाहिए और वनचरोंके लिए दुर्गम भवन बनाना चाहिए । यह कहकर पन्नोंके तोरणवाला एक प्रासाद उसने खम्भेके ऊपर बनाया, उस में 'कुवेरश्री के पुत्र 'श्रीपाल' को रख दिया और लाल कम्बलसे ढक दिया। जिससे प्रतिदिन आनेवाली रतिरसरूपी घोड़ियां इन मनुष्यनियोंके द्वारा यह ग्रहण न कर लिया जाये इस प्रकार उस प्रियको उस दुर्ग्राह्य धरमें रखकर आज्ञा लेकर वह प्रणयिनी चली गयी। अरुण लाल कपड़ेसे देके हुए उसे मांसका पिण्ड समझकर तीखी चोंचवाला भेरुण्ड पक्षो राजाको ले गया। विशाल आकाशतलसे उसके करकमलसे अंगूठी गिर गयी।
___घत्ता-आदर्श पुरुषके नामको अपनी गोदमें धारण करनेवाली, दुःसह वियोगको आगके सन्तापको दूर करनेवाली, उसे रक्षा करनेवाले अनुचरोंने घर आकर निर्मल पवित्र बप्पिलाको सौंप दिया ॥१४॥
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नाना रत्नोंसे चमकते हुए सिद्धकूट जिनालयके समीप धरतोतलपर जैसे ही बैठा, वैसे हो अपने शरीरको हिलाकर राजा श्रीपाल उठा। यह चंचल पक्षी इरकर आकाशमें उड़ गया। कम्बल उसके पैरोंके नलसे लगा हुआ चला गया। धरतीपर पड़े हुए और मदनवतीका इच्छित समझकर अनुचरोंने उसे देखा। यहाँपर इस श्रीपालने भी दुष्कृत लाखों पापों और दुखोंका नाश करनेवाले जैन मन्दिरको देखा। स्तुति करते हुए, दुर्नयको नाश करने वाले दृढ़वानाके किवाड़ खुल गये । जिसको देखनेसे संचित कुदृष्टि पाप नष्ट हो जाता है। जिसको देखनेसे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। जिसको देखनेसे सम्यक् दर्शन प्राप्त हो जाता है। (विरत्न ) जिसको देखनेसे उपशम भाव प्राप्त होता है। स्व और परका विवेक होता है। जिसको देखनेसे दुर्गतिका नाश होता है। जिसको देखनेसे समग्र संसार दिखाई देता है। ऐसे उन दष्कर्मों का निवारण करनेवाले देवोंके देव आदरणीय अनन्त भगवान्को देखा और कवि मार्गमें प्रसिद्ध स्तोत्र व्रतको 'गुणपाल' के बेटे 'श्रीपाल' ने प्रारम्भ किया।
पत्ता-आप मां-बाप हैं । आप शान्ति करनेवाले हैं, आप अलंकारोंसे रहित हृदयका धारण करनेवाले हैं । हे जिनेन्द्र ! जिन परमाणुओंसे तुम्हारे शरीरकी रचना हुई है वे परमाणु तीनों लोकोंमें उतने ही थे ॥१५॥