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हिन्दी अनुवाव
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सैकड़ों पारियों वाहनों रहनों को देखते हुए तब विद्याधर निवासों में तुम्हें देखते हुए मैंने आंखें बन्द किये हुए तथा जिसके सफेद गालोंपर बलकावली हिल रही है, ऐसी चंचल विद्युतवेगाको तुम्हारे वियोग में शोषित देखा। मरणको इच्छा रखनेवाली मैंने उसे अभय दान दिया कि मैंने यदि तुम्हारे प्रिय संयोगकी तलाश नहीं को तो 'मैं' विद्याधर पट्टको अपने भालस्तरपर नहीं बांधूंगी। इस बातको तुम जान लो और हे ललितांगी ! तुम अपनेको कष्ट मत दो । तब भगवतीकी विगलित मदवाली तथा रति उत्पन्न करनेवाली सखो भो वहाँ आ गयी । उस सखीने कहा कि आज मैंने रातमें चन्द्रमाको अपने गृहमें प्रवेश करते हुए देखा। और फिर यह निकल गया । सबने इसे दुःस्वप्त समझा और सोचा कि सवेरे सिद्धकूट जिनालय में शान्तिके लिए 'जितेन्द्र' की पूजाका अभिषेक करना चाहिए।
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पत्ता - दूसरी सखियाँ जिनका मुद्रा सहित लेख है । भोगवतीको तू सहेली अत्यन्त गौरवान्वित है, जो मुझे भेजकर तुझे बुलाया ||२६||
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ऐसा कहकर वह सुन्दरी चली गयी। 'मैं' श्रीपर्वत के ऊपर चढ़ गयी। उस काननमें मणिमय कुण्डलोंसे मण्डित कानोंवाली छह कन्याओं को देखा कि तुममें अनुरक्त जिन मनुष्योंको अशनिवेग विद्याधर ने सत्ताईस योजनवाले उस वनमें बन्द कर रखा है। मैंने करुणापूर्वक उन मृग-नेत्रियोंको उठाकर अपने नगर में ले आयी हूँ। और उन कन्याओंको राजाके लिए सौंप दिया है। मैं दो दिनों तक बाट जोहती हुई, विद्याधर नगरोंमें घूमती रही थी । तब हरिकेतु कुमारने तुम्हारी कथा विस्तारसे कहो 1 यहाँ आये हुए मैंने तुम्हें देखा । कामने मेरे मनमें अपना तीर 'चला दिया । हे देव ! मैंने वृद्धाका रूप धारण किया और बेरोंसे भरी हुई यह पोटली रख दी । पुण्डरीकिणी नगरमें ज्योतिषीने इस बातको जाना था और कहा था ।
घत्ता - इस प्रकार श्रेष्ठ कुन्द - पुष्पों के समान दांतोंके मुखवाली सती सुलोचना यह कथा. तीनों लोकोंके लिए भयंकर तथा भरत नरेश्वरके अनुचर राजा जयकुमारसे कहती है ||२७||
सठ महापुरुषोंके गुण और अलंकारोंवाले इस महापुराणमै महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका विद्याधरकुमारी-विरह
वर्णन नामका बत्तीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३२ ॥