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श्री की
सन्धि ३४
नियमोंका त्याग करनेवाली वह मायाविनो पतिव्रता अपने प्रियके भवनमें प्रविष्ट हुई। वहीं पर कामिनियों के लिए सुन्दर कुमारने एक कन्या देखी, जिसे 'भूत' लगा हुआ था ।
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जितशत्रु और विमलावती देवीकी कमलावती नामकी सौभाग्य से युक्त कन्या थी । विद्यासिद्धि करते समय वह 'भूत' से ग्रस्त हो गयी। अपनी बहनों में आदरणीय उसे मरघट ले आया । जितशत्रुने सुन्दर कुमारसे प्रार्थना की कि इस त्रिभुवनमें जो-जो दुःस्थित है, पीड़ित है। उसके लिए आप बन्धु हो । आप इतनी श्री दो, और मेरी लड़की के स्वामी बनने की कृपा करो। तब कुमारने मन्त्रोंसे वशीभूत पिशाचीसे ग्रसित कन्याका पिशाच दूर कर दिया। दोनोंने अपना हृदय एक दूसरे को दे दिया। अभिलाषा के साथ दोनोंने एक-दूसरेको देखा। ईर्ष्यावश कुमारसे अप्रसन्न होकर सुखावती अपने घर चली गयो । राजाने समझ लिया कि यह चक्रवर्ती है और उस विश्वपतिको अपने घर ले आया ।
घत्ता -- लोगों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाले मणिहारोंसे उसकी पूजा कर राजाने कन्याओं को अन्धपुरमें रख दिया । रूपकी लोभी उन मुग्धामोंने अपने-अपने मन में उसे प्रियरूप में स्थापित कर लिया ||१||
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ससुरने कहा कि हे चन्द्रमुख, तुम विवाह कर लो। उसने भी उसका वचन देखा, उसका मुख देखा और कहा कि मेरा हृदय बन्धु-वियोगसे दुःखी है। हे ससुर ! इसलिए आप मुझे वहाँ ले arry कि जहाँ मेरा भाई वसुपाल रहता है। उससे मिलकर में देवता और मनुष्योंके नेत्रों तथा हृदयको चुरानेवाली इस सुन्दरीका हाथ पकड़ेगा। यह सुनकर सज्जन मन जितशत्रुने वारिसेनसे कहा कि इस सुन्दर कुमारको लेकर तुम अनेक सुखों को करनेवाली पुण्डरीकिणी नगरीकी और शोघ्र जाबो । तब उस सुभगको लेकर जिसमें ग्रह घूम रहे हैं, ऐसे आकाशपथ से