________________
३३. १०.११)
हिन्वी अनुवाब शिशु चूमे जा रहे हैं। यह देखकर कि कन्याएं जलकोड़ा समाप्त करके चली गयी है। वह प्रिय सखी अपनी मणि वापिकापर आ गयो । शत्रुसेनाके उपद्रवको देखकर उस बालाने कुमारको छिपा दिया। उन विद्याधरोंको वह विद्याधर उसी प्रकार दिखाई नहीं दिया, जिस प्रकार अज्ञानियोंको सर्वज्ञ दिखाई नहीं देते ।
पत्ता-अभिनव स्वर्णकी तरह रंगवाली उस कन्याने शीघ्र ही कुमारको उठाकर 'जिन मन्दिर' को पूर्व दिशा में रख दिया ।1८]
हथिनीकी तरह वे विद्यारियां क्रोड़ा वनसे अपने-अपने घर चली गयीं। अपने मुखसे जिसने चन्द्रमाकी कान्तिको पराजित किया है, ऐसे स्फटिक मणिकी चट्टानको देखते हुए राजाको उसने मुद्रासे रहित इस प्रकार देखा, मानो रतिके द्वारा पूजित कामदेव हो। उसे देखकर उन्नत मालवाले बप्पप्रिय सालेने जान लिया कि यह वही गुणपालका बेटा राजा है कि जिसे प्रणयिनियों के बारा प्रणय उत्पन्न किया गया है। देवताओंके द्वारा जो वीणा लेकर गाया जाता है, जो सज्जनरूपी कामधेनुको दुहनेवाला है। यह विचार करके धूमकेतु विद्याधर इस प्रकार दौड़ा मानो प्रलयकालमें पुच्छल तारा उठा हो। और उस जिन मन्दिरके आंगनसे वह राजाधिराज इस प्रकार ले जाया गया जैसे गरुड़ने नागको उठाकर फेंक दिया हो। शत्रु उसे सरावतीके समीप ले गया और जिसमें नीलमयूर नृत्य करते हैं, कालगिरिको ऐसी कालगुहामें, यमके अधिवास हरिवाहिणी देशमें उसे फेंक दिया।
घत्ता–देवीके अनुकूल होनेपर क्षयकालसे रहित वह स्वामी सेजपर बैठ गया और कालभुजंगने उसकी पूजा की ॥९
उसरावती नगरीमें हेमवर्मा था। उसके अनुचरोंने उसका कम उसे बताया कि किस प्रकार वह शय्यापर चढ़ा और जिस प्रकार वह सेजपर चढ़ा, नाकको चढ़ाया, नवाया और धूमकेतु निकल गया । जिस प्रकार राजा अन्यत्र ले जाया गया और जिस प्रकार उसे स्थापित कर दिया गया कि कोई नहीं जान सका। यह सुनकर उसरावती नगरीके राजा नौकरों, अनुचरोंपर कुद्ध हुआ कि तुमने गलतो क्यों की ? तुमने उस आदर्श पुरुषको रक्षा क्यों न की। तुमने मेरे होते हुए उसके हर्षको क्यों छीन लिया? तब बहाँपर रतिसुखके लोभी बप्पिल सालेने कुद्ध होते हुए कहा कि चन्द्रपुरमें अन्धकारके समूहसे नीलो रातमें, मरघटमें उस राजाको सूलीपर चढ़ा दिया तथा
वार, मोगरीसे उसे आहत किया गया । लेकिन जो पुण्यादि थे वह विष द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, शल, सब्बल से न भेदा जा सकता। वह मनुष्य नहीं राक्षस कूलसे खाया जा सकता है।
धत्ता-जलतो आगमें डाला वह भी उसीमें अत्रिकल स्थित रहा। जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमलोंके लिए अग्नि भी ठण्डी हो गयी ॥१०॥