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३२. १७.१]
हिन्दी अनुवाद
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इस प्रकार विशिष्ट गुणोंसे परम जिनेन्द्रकी वन्दना कर वह कुमार रंगमण्डपमें बेठ गया। तब एक विद्याधर पुरुष वहाँ आया। और अपने दोनों हाथ सिरसे लगाते हुए बोला-इस भोगपुरी नगरीमें उन्नत मानवाला 'अनिलवेग' नामका विद्याधर राजा है। उसकी कान्तिवती नामको प्रिय गृहिणी है । उसकी भोगवती नामकी लड़की है। राजाने योगीश्वरसे पूछा कि इस प्रणय पुत्रीका वर कौन होगा? जो प्रगाढ़ धारण किये गये संयममें धुरन्धर हैं ऐसे योगीश्वरने विचारकर कहा कि-शिसोनार की बराह लगे हुए सिद्धकूट "जिन-भवन' के किवाड़ खुल जायेंगे वह कामदेवके बाणोंको धारण करनेवालो स्वरूपमें प्रसिद्ध तुम्हारो कन्याका बर होगा। राजाके द्वारा निवेदित में यहाँ देखते हुए-हे राजन् ! मैंने तुम्हें देखा नहीं चाहते हुए भी उसने कुमारको उठा लिया और वह नभचर शीघ्र आकाशमागंसे उड़ा । प्रासादके कार खेलती हुई, नगर आनेपर कन्या उसे दिखायी। अपने बन्धओंके शोकमें लीन तथा शास्त्रमें लोन उस 'श्रीपाल' ने 'भोगवती' को निन्दा की। यह नारी विषैले दांतोंवालो नागिन है। यह नारी अशुभ कहनेवाली डाइन है। ये बिना आहारको विषूची है, ये बिना ज्वालाओंकी आग है।
पत्ता--विद्याधर राजाकी वह लड़की उस दुर्जनमें लीन मनको सन्तप्त करनेवाली अपने निस्य सुन्दर अनुपम स्तनयुगलको तथा अपने मनमें दोउपनेको उसे दिखाया ।।१६।।
यह महिला बिना गुफाकी बाधिन है, ये मारनेवालो विषशक्ति है, रात्रिके समान यह मित्र (सूर्य) के सामने नहीं ठहरती, यह श्यामल दोषाकर (चन्द्रमा ) के पास पहुंचती है। यह मदिराके समान नित्य मदमत्त रहनेवाली है, कुत्तोके समान दानमानसे मित्रता करनेवालो है, "अच्छा-अच्छा मैं उत्कण्ठित यहाँ स्थित रहता हूँ, जिससे दोनोंका मायाभाव देख सकूँ। स्वामीके देखनेपर ही मैं जीवित रह सकता हूँ। विवाहसे मुझे क्या लेना-देना?" ऐसा सोचते हुए सस सुन्दरको जिसने शत्रुभेदन किया है, ऐसे मारुत वेगके लिए उसे दिखाया और उसने यह भी कहा कि जिस प्रकार उसने उसे नहीं चाहा, और उसने नारीजनकी निन्दा की। अपनी कन्याकी निन्दाकी बातसे विरुद्ध होकर उस क्रुद्ध विद्याधर राजाने वह सुनकर कहा कि-उठाकर इस पागलको प्रेतवनमें फेंक दो। तब 'देत्य' ने श्रीपालको बुढ़ियाका रूप बनाया और उस अनुचरने उसे वहाँ फेंक दिया।
पत्ता-शीघ्र ही उस बालकको वहां फेंक दिया गया कि जहाँ 'पवनवेग' का पुत्र 'हरिकेतु' मन्त्रका ध्यान करता था। और बलसे जोते गये जिसे सर्वोपधि विद्याने मंट दिया था॥१७॥
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