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३१. २६.५]
हिन्दी अनुवाद
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वहाँ एक और नागदत्त सेठ रहता था, उसकी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी सती सुदत्ता थी। उस वणिक-मूत्रने लोगोंको दष्टिके लिए आश्रयस्वरूप (सुन्दरताके कारण) एक सुन्दर नाग भवन बनवाया । नगरके बाहर जहाँ उसका (वसुन्धराका पति खेती करता था, दूसरे दिन उसकी पत्नी वहाँ जाती है। दहीसे गीला, अदरकसे मिश्रित सुन्दर बधाग हआ भोजन लेकर ग़रतेगे जात हा उसने एक साधको देखा। उसने उसके लिए आहार दिया। उस शत्रवणिक्के नागघरमें चन्द्रमुखीके द्वारा हाथपर रखा हुआ भोजन मुनिने कर लिया। उस दानसे लोगो द्वारा सस्तुत पोच आश्चर्य उत्पन्न हुए। देवताओंने रत्न बरसाये, रंगबिरंगे और विचित्र ।
घत्ता-रत्नोंकी वर्षा देखकर प्रणयिनी त्रस्त होकर भागी। यह सघन कणोंवाले खेतमें जाती है और अपने पतिसे कहती है ।।२४||
"मैं जो तुम्हें दही-भात लायी थी, उससे मैंने साघुको सन्तुष्ट कर दिया। किसीने वहां फूल बरसाये, हे प्रियतम ! वे मेरे माथेपर गिरे। एक और जगह सुन्दर किरणोंसे जड़े हुए पत्थर आकाशसे गिरे। एक और जगह भी कुछ गरजा, मैं नहीं जान सकी। बाजा बजा। एक और जगह साधु-साघु कहा गया, एक और जगह बरसनेवाले बादल गहगडाये। वछ सुनकर में डरकर भागी।" इसपर स्वामी कहता है, "हे सखी, तुम सदय हो । तुम मेरी गहरूपी कमलको लक्ष्मी हो, तुम्हारे रहते हुए मुझे लक्ष्मी प्राप्त होगी। सुम गुणरूपो माणिक्योंकी खदान हो। तुमने यह धर्म किया कि जो मुनिको आहार दिया। वे पत्थर नहीं दिव्यमणि हैं।" यह कहकर यह वणिक् शोध नागभवन पहुंचा । लेकिन शत्रुवेश्य ( सुकेतु ) ने वह धन ले लिया । सुकेतु बोलाकुछ मत कहो ।
पत्ता-हिमकिरण और क्षीरको सरह मास्वर मेरे नागभवनमें गिरे हुए अत्यन्त कान्तिवाले माणिक्य मेरे ही होते हैं ॥२५॥
२६ दूसरेने कहा-"तुम क्षुद्र और दुष्ट हो । यह मेरी पत्नी के दानका फल है। हे चोर, उसका अपहरण मत कर, राजा नाराज होगा।" तब यह कुमति धन लेकर वहाँ गया जहाँ राजा था। धर्मको गतिको कौन पा सकता है? वह राजा और वह बनिया भी अत्यन्त मूर्स और लोभसे प्रवंचित थे। जैसे-जैसे बद्द मनमें वह वन स्वीकार करता, बेसे-वेसे वह इंटोंका समूह होता