Book Title: Mahapurana Part 2
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 344
________________ ३२.१.१४] हिन्दी अनुवाब उसने उसके होनेवाले शुभको स्वीकार किया। और वह अपना प्रण्छन्नरूप बनाकर स्थिर हो गया। विजया पर्वतके ऊपर स्थित होकर सो योजन आकाशके आँगनमें जाकर शत्रुके द्वारा फेंके गये आकाशसे गिरते हुए कुमारको देवेन्द्रने शीघ्र अपनी विद्यासे धारण किया। धीरे-धोरे श्रीपर्वतके शिखरपर उसे स्थित (स्थापित ) कर दिया। वह राजकुमार वहाँ भूखसे व्याकुल होने लगा। स्फटिक मणिको चट्टानोंसे का हुआ सरोवर था, उसने उसे देखा और जल समझकर वह सुन्दर वहाँ गया। जलकी इच्छासे विशाल श्वेत पत्थरपर फैलाये गये उसके हाथ पत्थरसे आ लगे। बालक अत्यन्त विस्मित होकर सोचता है कि देशके स्वभावके सदृश यहाँ पानी भी कठोर है । इतने में उस अवसरपर एक कामकिशोरी गोरी कमरपर घड़ा रखे हुए वहाँ आयो। उस तरुणने जलके विवर्तमें प्रवेश करती हुई और पानी भरती हुई उसे देखा। उसने भी उस मार्गसे जाकर अच्छी कुसुम रजसे सुभाषित कोमल जलको पिया। पत्ता-कलशको कमरमें लिये हुए कामकी उत्सुकतासे युक्त धवल चंचल नेत्रोंके द्वारा उस राजाको देखा और जिसको प्रतिभा आहत है, ऐसी उस बालाने पूछा नहीं ||८|| जो सरस मनमें उत्पन्न प्रणयसे अत्यन्त स्निग्ध है, ऐसी उस भोली गोरीने भवनमें आकर पूछा-कि यदि वह विष्णु है तो उसके चक और चिह्न नहीं हैं, यदि वह कामदेव है तो उसके पास कुसुमधनु नहीं है, यदि वह चन्द्रमा है तो उसके हिरण चिह्न नहीं है। अगर वह सूर्य है तो उसका अस्त नहीं हुआ है । यदि वह इन्द्र है तो उसके हाथमें वज्र नहीं है। हे आदरणीय ! महासरोवरमें पानीके लिए जाते हुए मैंने एक युवकको देखा है, क्या जानू कि वह त्रिलोकका राणा हो? क्या जानूं कि जिसके बारे में लोग कहते हैं वह वही श्रीपाल नामका राजा हो । लो, तुम्हारा प्रियतम आ गया और अपने स्तनों, मणिहारोंको घुमाओ। सब पांचों कुमारियां चलीं, मानो हाथीके पास उसकी हथिनिया जा रही हों, मानो कामदेवने अपनी भल्लिकाएं छोड़ी हों, वे उस कुमारके पास पहुंचीं। उस भद्रने कहा-आकाशको धलित करनेवाले और आधे-आधे नेत्रोसे आप क्यों देख रही हैं। मेरे पास आकर क्यों बैठी ? लगता है कि कहींपर आप लोगोंको मैंने देखा है । यह सुनकर ढीठ बड़ी कन्याने जवाब दिया। पत्ता--पुष्कलावती भूमिपर अच्छे गोधनवाले दुर्योधन नामक प्रसिद्ध देशके सिन्धुपुर नगरमें लक्ष्मी नामकी अपनी पत्नीसे राजा नरपाल ऐसा शोभित था मानो विष्णु हो ।।२।। २-४१

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