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१७..४] हिन्दी अनुवाद
१८१ अपूर्वकरण गुणस्थानसे नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें चढ़कर दसवें समसाम्पराय गुणस्थानमें पड़ गये । समस्त मोह समूहोंका नाश करनेवाले, श्रीप्रभ राजाको धरतीके रसिक, आहार शरीरका त्यागकर, प्रायोपगमन मरणके द्वारा, सर्वार्थसिद्धिके शोभित देवविमानमें ऋषि वचनाभि प्रहमेन्द्र हुए।
पत्ता-विधिसे घटित परिपाटियोंसे दिव्य शरीर धारण कर और स्वयंको पुण्य शरीर और अत्यन्त सुन्दर ( अच्छा ) देखकर ।।६।।
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उसने अवधिज्ञानसे अपना जन्म जान लिया । जिन और जिनवरके द्वारा कहे गये धर्मको उसने प्रणाम किया। जिसमें सघन मणिकिरणोंसे मार्ग पीला है, ऐसे प्रेसठ पटलवाले स्वर्गका अन्तिम पटल शिखामणिके समान है। उससे बारह योजन दूर श्रीसे शोभित सिद्धक्षेत्रमें शिवपदका निवास है। यहां जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन प्रमाणवाले हिम शंख और चन्द्रमाके प्रमान विमानमें वहाँ धर्मकी सेवा करनेवाले वजनाभिके आठों ही भाई अहमेन्द्र हुए। वे नौ ही पुण्य सम्पादित करनेवाले देव थे, जो विशुद्ध स्फटिक मणिके समान आभावाले थे। शरीरके मानमें उन्हें एक हाथ बराबर ऊंचा समझिए। अभिनव कमलके पत्तोंके समान उनके सरल नेत्र थे। शुक्ल लेश्यावाले वे मध्यस्थभाव पारण करते थे। अदुष्ट स्वभाववाले और गर्वसे दूर थे। उनके मुकुटोंके अनमागपर मन्दारमाला पड़ी हुई थी। कामसे रहित सम्पूर्णकाम थे। वे एक कत्रसे दूसरे क्षेत्र नहीं जाते। वे उत्तर वैक्रियिक शरीर ग्रहण नहीं करते। तैंतीस हजार वर्षों में वे भोजन ग्रहण करते हैं और इतने ही पक्षों में सांस लेते हैं। तैंतीस समुद्र पर्यन्त जीवित रहते हैं। वे विश्वरूपी नाडीको देखते हैं।
पत्ता-जममें जो सुख अहमेन्द्रको है, वह कामसे मन्द नागेन्द्र, खगेन्द्र, पृथ्वीश्वर और देवेन्द्रको प्राप्त नहीं है ॥७॥
ऋषभेश्वर कहते हैं- "हे गवरहित, भग्यत्वमें आरूढ़, धरणीश भरत सुनो--जयवर्मा लोकर, अपने निदानके दोषसे पोड़ा-सा धर्म करनेसे विद्याधरेन्द्र हुआ। फिर महाबल होकर मैंने संन्यास किया । और स्वयंबुद्धिसे बहुत-पुण्य संचित किया। वहां मरकर मैं ईशान स्वर्गमें
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