________________
३०, १९, ४] हिन्दी अनुवाद
२७७ जिसमें, ऐसी सुलोचना पुनः कहानी कहती है कि उस नगरमें बाहर मरघट में अपने हाथ लम्बे किये हुए यतिवर हिरण्यवर्मा विराजमान थे। प्रतिमायोगके सात दिन पूरा होनेपर, मुनिने सम्बोधित किया। राजा, परिजन और नगरमें हलचल मच गयो । मुनिचरितका अनुगमन करनेवालो गिरिकी तरह निश्चलमति प्रभावती आपिका, रात्रिमें नगरके समीप प्रतोलिमें, अपने मनरूपी कमलमें जिनवरका ध्यान करती हुई स्थित थी। यहींपर वह शत्रु वणिक् ( भवदेव ) जो बादमें बिलाव हुआ वह मनुष्य होकर नगरका सेवक कोतवाल बना। नगरसेठकी गजवरगामिनी स्त्री, रात्रिके समय उसके पास आयी। उस स्वर्णलतासे उसने पूछा, 'हे सुन्दरी, इतनी देर कहाँ थी।"
___ पत्ता-( उसने कहा )-मुनि प्रतिमायोगमें स्थित थे, उनके चरणोंकी वन्दना अशेष नगर और हमारे सेठने को ॥१७॥
१८
विनोंसे रहित श्रावक वर्ग, गुणवती और यशोवती आयिकाओंके संघ–सबने यतिवरके पैरोंकी संस्तुति की। उन्हें हम मरघट में छोड़कर आये है। पहले जो मुनिनाथकी गृहिणी थी, बुद्धि और विशुद्ध शील गुणकी नदी नतोको धारण करनेवाली आदरणीय वह आते-आते सूर्यके अस्त हो जानेपर नगरके द्वारपर कायोत्सर्ग कर ठहर गयी। उन दोनोंने सेठके घरमें ही कबूतर-कबूतरी जन्ममें जिनधर्मको जाना था। बिलावने उन्हें वनमें पाकर खा लिया। परन्तु पुण्यके योगसे वे मनुष्य हुए। दोनों विरक्त हो गये और उन्होंने चारिश्य ग्रहण कर लिया। तप तपते हुए वे यहाँ आये हुए हैं। मेरा स्वामी उनको वन्दनाभक्ति करने के लिए गया हुआ था, इसोलिए इतनी रात बीत जानेपर में आयी । इस प्रकार सुनी है विषदंशको प्रवंचना जिसने, ऐसे तलवर भृत्यको अपने पूर्वभवका स्मरण हो बाया कि अपना अहितकर जानते हुए मैंने पूर्वजन्ममें उन दोनोंका वध किया था।
धत्ता-क्रोधकी आपसे जलता हुआ वह उस वेश्याको झूठा उत्तर देकर वहां गया, जहांपर नगरके बाहर संयम धारण करनेवाली वह आर्यिका स्थित थी ॥१८||
उसे देखकर उसने फिर मुनिको देखा। और मरघटकी लकड़ियों में आग लगायी। वापस आकर उन दोनोंको पुकारा, और पापीने उन्हें धिक्कारा कि "पूर्वभवमें, जिसके साथ सुख में लोन तुम नष्ट हुई थी, अपने उस वरको तुमने इस समय क्यों छोड़ दिया? तुम्हारा रतिरमण