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३०. १७.५]
हिन्दी अनुवाद अभिमानको खण्डित करनेवाली कुबेरकान्तसे सम्बन्धित अभिलाषा (पतिको ) बता दी और बोली, "मैं पापात्मा तुमसे विद्रोह करनेवाली है। मेरी जैसी स्त्री संसार में न हो. हे निय, मुझे छोड़िए, मैं : बज्याके लिए जाती है।" तब पति अपनी पत्नीके लिए उत्तर देता है-"जो तुम्हारा मन दूसरेके प्रेमरूपी मलसे मैला था वह आलोचनारूपी जलसे प्रक्षालित हो गया। इस समय तुम मेरे लिए विशुद्ध महासती हो । आओ चलें ।" इसपर वधू ( विद्याधरी) कहती है"जीवदयारूपी धीसे सिक एवं शुभ परिणामरूपी समीर से प्रदीप्त--
पत्ता----घर-मोहरूपी प्रचुर धूमसे रहित, तपरूपी ज्वालासे मैं दग्ध होती हूँ और हे प्रिय, तपी हुई स्वर्णशलाकाके समान में विशुद्ध होतो हूँ।" ।।१५।।
इस प्रकार वह सैकड़ों मनुहारोंसे नहीं थकी। तब प्रियने उस विद्याधरीको मुक्त कर दिया। वहाँ वे दोनों प्रजित हो गये। और विहार करते हुए इस नगरमें आये हैं। मुनि बाहर सुन्दर स्थानमें ठहरे हुए हैं, और घर मायी हुई आयिका (विद्याधरी) ने जिस-जिस प्रकार गुह्य रहस्यसे सुन्दर और विरागिणी कहानी मुझसे कही है, उस-उस प्रकार प्रियतमने उसे सुना और निकलकर उसने उसे प्रणाम किया। भकिसे उसे प्रणाम करते हुए प्रियने धीर बुद्धि गान्धारीकी स्तुति की। सब लोगोंने जाकर संसारको नष्ट करनेवाले आदरणीय रतिषेण मुनिकी वन्दना की। उसने अपना कुलक्रम (उत्तराधिकार) गुणपालको दिया और लोकपाल प्रवजित हो गया। नि:स्पृह मद और कामको नष्ट करनेवाले और व्रतोंके भारका पालन करनेवाले स्वामीने चार पुत्रोंके साथ दीक्षा ले ली। लेकिन मैं सबसे छोटे पुत्र कुमार कुबेरदयित मोहमें पड़कर यहाँ हूँ। मैं प्रभासे प्रहसित पुत्रका मुंह देखती हूँ।
____ पत्ता-उसे प्रियदत्ता ( कुबेरकान्तकी पत्नी ) ने दूसरे सभी राजाओंको छोड़ते हुए अपनी कन्या कुबेरश्री कामिनी सैकड़ों मंगल करते हुए दे दी ॥१६।।
वह कुबेरप्रिया अपने पुत्रसे पूछकर, इन्द्रियोंके सुख-सम्बन्धको निन्दा कर, कबूतर पर्यायसे मनुष्यत्व प्राप्त करनेवाले, अरहन्त धर्मका आचरण करनेवाले (हिरण्यवर्मा ) को देखकर, केलेके वृक्षकी तरह कोमल शरीरवाली प्रियदत्ताने शान्त-दान्त बहुत-से गुणोंसे गणनीय ( मान्य ) गुणवतो आधिकाके चरणमूलमें तुरन्त संन्यास ले लिया है । जयकुमारके मुखकी ओर अपांगलोचन