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सन्धि ३१
धिन-वचनोंको सुनकर और अपने हृदयमें मानकर मालतीकी मालासे शोभित मणिमाली देव अपनो कान्ताके साथ गया। नवकमलके समान मुखवाला और श्रीको माननेवाला वह आकाशमें विहार करता हुआ, जिसमें ऊँचे तालवृक्ष हैं, ऐसे धान्यकमाल नामक काननमें पहुंचा, जो जगमें प्रसिद्ध और वृक्षोंसे समृद्ध था। इससे धवलित और पाकवाकोंसे मुखरित था। उसने सुन्दर सर्पसरोवर देखा, जो चंचल जलसे आन्दोलित, कमलोंसे पुष्पित, गजमदसे श्यामल, केशरसे पिंगल, पत्तोंसे नीला बोर भ्रमरोंसे काला था। वह अपने मनमें चौंक गया, पूर्वजन्मको उसने याद की । मुनिकी सेवा करनेवाले देवने कहा
पत्ता-पूर्वजन्ममें में मकान्त नामका वृणिन् पुत्र, शा. प्रतसचिन करनेवाला। और तू रतियेगा नामसे मेरी प्यारी घरवाली थी ।।१।।
यह मृणाळवती नगर दिखाई देता है, वहाँ दोनोंका विवाह-प्रेम हया था। किसी प्रकार चीरांचलसे पकड़ा-भर नहीं था, और वह गुण्डा पीछे लग गया था। प्राणोंके हरणके भयसे विघटित, दौड़ते हुए हम लोग यहाँ गिर पड़े थे। यहाँ तुम्हारे पैरोंका खून गिरा था। यहाँ अपरी वस्त्र गिर गया था। यहाँ कंचुकसे कांटा लगा था। यहां हम दोनोंको कम्प उत्पन्न हुआ था। पक्षियोंसे विभूषित यह वह सरोवर है जिसके जलसे देह साफ होती है । यहाँपर वह दुष्ट जब हमें पकड़ना चाहता था, तो इतनेमें उसने वहींपर एक प्रबल सेना देखी। वह सज्जन शक्तिषण सजा था। हे सखी, क्या तुम्हें उसकी याद नहीं आ रही है। जब उसने पूर्व दिखला दिया, तब देवीने अपना सिर हिला दिया। जबतक उसने ये शब्द कई तबतक उसने एक मुनिको देखा। देवने अपना सिर कमल हिलाकर, शब्दों और पक्तियों सहित यह बात कही।