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२९.२३.११] हिन्दी अनुवाद
२५३ घत्ता-वणिक् श्रीके मान्य उस वणिक्से धनवतीका पुत्र हुआ। जो सौभाग्य और जनमनको अच्छे लगनेवाले रूपसे मानो सुरराज था ॥२१॥
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मानो वह अपनी कुलगृहरूपी कमलश्रीका प्रिय था। नामसे उसे कुबेरकान्त कहा गया । धर्मानन्द योगको याद कर वे मन्त्रीरूपी देव उसको भोग प्रदान करते हैं। वस्त्रांग, भूषणांग, महरांग, चौथा भोजनांग ( कल्पवृक्षोंके द्वारा) पुण्ड्र और इक्षुरसका प्रवाह वहाँ नित्य प्रवाहित होता है, स्नानके लिए वारिका प्रवाह बरसता है। निस्य ही उत्तम धान्यके खेत पकते रहते हैं। नित्य हो सुखद लगनेवाली बांसुरी सहित वीणा स्वयं बजती रहती है। घर में चिन्ता करते ही कामधेन दह ली जाती है। इस प्रकार दिव्यभोगोंके भोगने में क्षण बितानेवाले अपने पत्रको पिताने नवयोवन में देखा। उसने उसके प्रिय सहचर प्रियसेनसे पूछा, 'क्या बहुत-सी वधुएं चाहिए, या एक ही कलत्र चाहता है, तुम्हारा परममित्र बताओ।' नवनलिन नेत्रवाला वह कहता है कि एक दिन हम लोग उद्यानमें गये हुए थे और वहांपर, दोनोंने चन्दनलता कुंजमें एक मुनिको देखा। वहाँ उसने एकपली नामका व्रत लिया है । तुम्हारे पुत्रको शीलवृत्तिको कौन पा सकता है। __घत्ता-चूनेसे पुते घरोंवाली उसी नगरीमें कुबेरके समान इसी धनपतिका बन्धु सागरदत्त नामक कुलीन सेठ था ॥२२॥
उसको अमृतसे सींची गयी कुबेरमित्रा नामकी गृहिणी थी। दूसरे जन्म में प्रणय बांधनेवाली अटवीश्री मरकर उसकी पुत्री हई । मानो वह सुरति सुखरूपी मणियोंकी खदान हो, मानो कलहंसके समान गतिवालो और कलकंठ ( कोयल ) के समान स्वरवाली हो। नीलो भ्रमरपंक्तिके समान केशवाली वह मानो प्रच्छन्न रूपमें कामभरली हो। प्रियदत्ता नामकी प्रसन्नदृष्टि और गुणोसे नत वह ऐसी लगती है, मानो कामदेवकी धनुषयष्टि हो। दूसरे दिन उसने एक कृत्रिम कुसुममाला बनायो जो मानो कामदेवकी शस्त्रशाला दी। मपनी गविसे राजहंसको जीतनेवाली प्रियकारिणी सखी उसे लेकर ससुरके घर गयी। उसे देखकर वणिक पुत्र विस्मयमें पड़ गया कि मनुष्य इस विज्ञानको नहीं जान सकता। यह सुनकर स्वच्छ सती धनवतीके द्वारा अपनी बहुको प्रशंसा की गयी।
पत्ता-कानोंको सुख देनेवाली प्रियवार्तासे कामकी आग धधक उठी। उसका मन लेते हुए, जलती हुई आगने कुमारको सन्तप्त कर दिया ||२३||