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हिन्दी अनुवाद
२३७ के लिए सूर्यके समान हैं, वे मेरे दुसरे भुजदण्ड है, वह ( भरत ) यह कहता है । तुम्हारे व्यक्तित्वको बहुत सम्मान देता है। दोषीपर क्रुद्ध होता है, गुणीका आदर करता है । भरतकी लोलाको कौन धारण कर सकता है। तुमने पुत्रका अच्छा दर्पनाश किया? लेकिन जो कन्या (अक्षयमाला) देकर उससे प्रेम जताया है वह मेरे शरीरको अत्यन्त जला रहा है। दुष्टके साथ सम्मान और संग नहीं करना चाहिए। इसपर कुरुवंश और नाथवंशके सुन्दर सुधाम जय और अकम्पन प्रसन्न हो गये। तब गृहिणो मन्त्री और अपना हित करनेवाले दुर्जेय चिलात और सर्पका अहित करनेवाले, जिनवरके चरणोंमें अनवरत प्रणाम करनेवाले, राजाकी सम्पतिका भोग करनेवाले एवं जयसे आनन्दित जयकुमारने एक दूसरे दिन अपने ससुरसे पूछा :
पत्ता--हे ससुर, तुम्हारी गोष्ठी और जिनवरकी दृष्टिसे विरति कैसे की जा सकती है ? तो भी अविनीत स्वकमके द्वारा जीव बलपूर्वक खींचकर ले जाया जाता है ।।४।।
सुधोजनके वियोग सन्तापको कौन सहन करता है ? फिर भी कार्यके विकल्प भावको जानकर ससुरने पुषी और वरको विदा कर दिया। उनके जाते हुए घोड़ोंके खुरोंसे आहत धूलने आकाश ढक दिया। गजोंके मदजलसे धरती गोली हो गयी। वेगसे ध्वजपट चंचल स्खलित हो गये। समुद्रमण्डलका जल चंचल हो उठा। धौर विषधर भारके भयसे दलित हो गये। नगाड़ोंका गम्भीर शब्द हो उठा । दिशाओंमें निवास करनेवाले गज कांप उठे। शत्रुओंको शान्त करनेवाला वह जाते-जाते कुछ ही दिनोंमें गंगानदीके किनारे पहुंचा। अपने-अपने तम्बुओके आवासोंसे सम्पूर्ण हेमांगदादि राजा सभी ठहर गये। वस्त्रके तम्बूकी कुटीमें महावरणीय, देवके समान वह राना गंगाको देखता हुआ स्थित हो गया।
पत्ता-लहरोंसे युक्त गंगामें पूर्णचन्द्र और सूपके प्रतिबिम्ब ऐसे दिखाई दिये, मानो भ्रमरोंको सुख देनेवाली लताके सफेद और लाल फूल हों।
अपनी छावनीको वहीं छोड़कर, भूमिमें महान वह अपने कुछ सुभटोंके साथ साकेत जाकर, भुवनमें श्रेष्ठ राजा ( भरत ) के द्वारपर हाथ जोड़कर स्थित हो गया। प्रतिहारने उसे शोघ्र प्रवेश दिया और चक्रवर्तीको प्रणाम कर उसने निवेदन किया, "विषधर नर और विद्याधरोंसे सेवित हे देव, देखिए यहाँ जय प्रणाम करता है।" तब उसने अपनी विशाल दृष्टि उसपर डाली मानो चन्द्रमाके विकसित नीलकमलकी माला हो । प्रसरित हो रहा है प्रणय रसका सागर जिसमें ऐसे राजाने स्वयं मुख देखकर, मानो स्नेह महावृक्षको कलीके समान अपनी अंगुलीसे उसे पीठासन बताया। तुष्ट होकर वह बैठ गया। राजाने उसका सम्मान किया। सभामें उसका पौरुष