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२९. १९.९]
हिन्दी अनुवाद नष्ट क्यों हुआ ?" शकुनिने कहा-"इसे अपशकुन हुआ था इसलिए इस जन्ममें इसका पैर टूट
" गुहारतिरो कसम्मका नाश करनेवाले क्रूरग्रहोंने इसे लंगड़ा किया है। पन्वतरि कहता है कि यह प्रकृति दोष है । कफसे अड़त्व होता और पित्तसे शुष्कता आती है, तथा वातसे शरीर नष्ट हो जाता है । तब भूतार्थ मन्त्रीने पुनः कहा
धत्ता-प्रकृतियों ( वात-कफ और पित्त) के साथ कहे गये शकुन तथा ग्रह-नक्षत्र आदि मनुष्यका जैतन्यस्वरूप समस्त जीवोंके अपने कर्मके अधीन होते हैं ।।१७।।
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इस प्रकार धीरे-धीरे बात कर, अपने हाथ जोड़ते हुए उन्होंने गुरुजीसे पूछा, "हे मुनीन्द्र, लंगड़ेपनका कारण क्या है, क्या शकुन कारण है ? या खोटे ग्रहोंका प्रभाव है, क्या प्रकृति-दोष है, या कौका आचरण है ?" तब मुनीन्द्र कहते हैं-"हे सेठ सुनो ! बहिरा, अन्धा, कोढ़ो, व्यापा, भील, दरिद्री, दुभंग, गंगा, अस्पष्ट आवाजवाला, अविशिष्ट, दुष्ट, दर्पिष्ट, कठोर, दुष्ट ओठोंवाला, क्रोधी, दुःखोंसे धृष्ट, वंठ, छिन्न ओठोंबाला, कान और नाकसे रहित, दुर्गन्धित शरीरवाला कन्यापुत्र, दोन, निर्लज्ज, कुबड़ा, वामन, कुशील, मांसभक्षी, दारु विक्रेता, चाण्डाल, कील, जीर्णवस्त्र धारण करनेवाला, कठोर और खड़े बालोंवाला, कोषको आगसे आहत कंकाल रूपवाला, जुआही, नगरको वेश्याका सेवन करनेवाला, वामन और लुच्चा भादमी पापके कारण होते हैं । लेगड़े और दूसरेके घरके आहारके लालची और विपरीत होते हैं, धर्मसे पवित्र होते हैं। न तो देवता लोग कुछ देते हैं, और न वे अपहरण करते हैं, देवेन्द्र भी पुण्यका क्षय होनेपर मरते हैं।"
___घत्ता--महामुनिके द्वारा प्रतिपादित बात भव्यजनोंने सुनी, उन्होंने अपना चित्त नियममें लगाया। दूसरेके धन और दूसरेकी स्त्रीपर उन्होंने अपनी आंख तक नहीं डाली ।।१८।।
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वहां सूर्यके समान तेजस्वी सत्यदेव दिखाई दिया, भूतार्थने उसे बुलाया और कहा-"ह पुत्र! आओ, और मुझे आलिंगन दो। क्या तुम मेरा नाम भूल गये ? हे पुत्र, तुम्हारे कोमल सुभग पुत्र धूल-धूसरित होते हुए भी छूनेपर सुखद मालूम होते थे। हे पुत्र, प्रिय कान्ताके द्वारा पोंछी गयी तथा ऊपर वक्षपर गिरी हुई तुम्हारे मुखको लारको बूंदोंको अपने वक्षःस्थल पर गिरे हुए अनुभव कर रहा है। हे वत्स, तुम्हें शिशुगति और वचन सिखाये गये थे। सिद्धोंको नमस्कार हो, ये वचन सिखाये गये थे। हे पुत्र, क्या तुम अपने पितरको भूल गये, बहुत कहनेसे क्या आमओ अपने घर चलें।" मन्द स्नेह वह इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भी अपने पिताके पर वापस नहीं पाया। प्रशस्त मन-वचन और कायके व्यापारसे शोभित पिताने विरक्त होकर तपश्चरण ले लिया। उन्हीं आकाशचारी गुरुके पास दृढ़तर मोहपाशको काटकर, जिस प्रकार बृहस्पतिने ऋषित्व ग्रहण किया, उसी प्रकार शकुनो और धन्वन्तरिने भी।
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