________________
२६. १८.८] हिन्दी अनुवाद
१७१ स्वसि च्युत होकर मनोरमाका पुत्र हुआ। जनपदमें उसका नाम 'केशव' रखा गया। जो सिंहका जीव चित्रांग था, वह भी समयके वशीभूत होकर, स्वर्गसे च्युत होकर, विमोषणका श्वेत नेत्रोंवाली प्रियदत्तासे वरदत्त नामका पुत्र हुआ। जो सुअरका जीव कुण्डलदेव था, वह भी फिर जन्मान्तरको प्राप्त हुआ । नन्दीसेन राजाका अनन्तमतोसे उत्पन्न उसीके अनुरूप पुत्र उत्पन्न हुआ। स्वजनोंमें उसे बरसेन नामसे पुकारा गया और वानरके जीवको मैंने जो कल्पना की थी वह भी रतिसेनका सुगतियालो चन्द्रमतीसे सुन्दर मनोहर नामका मनुष्य हुआ।
पत्ता-उसका चित्रांग नाम रखा गया । नकुलको मनोहर नामका देव स्वर्गसे आकर, प्रभंजन नामके राजाका रानो चित्रमालिनीसे पुत्र उत्पन्न हुआ ||१६||
जो नामसे प्रशान्तवदनके रूपमें जाना गया। जिसने मुनियोंकी सेवा की है ऐसे सुविधिके सहचर मित्र और अनुचर ये राजपुत्र शुभ परिणामके कारण अभयघोष राजाके साथ विमलवाहन तीर्थंकरको विविध पूजाओं और विविध शब्दोंसे विभक्त वन्दना भक्तिके लिए गये। वहाँ राजा अभयघोष जिनघोष सुनकर चक्र, खजाना और धरती छोड़कर तथा कामकषायका विभंजन करनेवाला निग्रन्थ निरंजन मुनि हो गया। उसके साथ अनिद्य राजाओंके रागको नष्ट करनेवाले अठारह हजार पाँच सौ राजपुत्र तथा वरदत्तादि जन मुनि हो गये। अपने पुत्र केशव शरीरको देखभाल करनेवाले पुत्रस्नेहके कारण सुविधि गृहस्थ ही बना रहा। उसने पांच अणुव्रत, तीन गुणन्नत और चार शिक्षानत ग्रहण किये और मदोंको छोड़ दिया।
धत्ता-जो अपने चितका निरोध कर लेता है, उसको इन्द्रियाँ विषयरसमें नहीं लगती। तप तो उस मनुष्यके घरमें ही है कि जो अपनेको दण्डित कर सकता है ॥१७॥
१८ दर्शन-व्रत-सामायिक-प्रोषधोपत्रास, लोगोंके दोषोसे अपने चित्तका विरमण । दिन में स्त्रीके साथ सहबासका त्याग, ब्रह्मचर्य और आरम्भका परित्याग । दो प्रकारके परिग्रह भारकी उसने उपेक्षा की। और अपने मन में उसने किसी भी प्रकारके पापका अनुमोदन नहीं किया। निर्दिष्ट ( सोद्देश्य ) आहारको उसने ग्रहण नहीं किया। दूसरेके लिए बनाया गया और किसी द्वारा दिया गया भोजन स्वीकार किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर अच्युत स्वर्गमें इन्द्रत्वको उसने स्वीकार कर लिया । अपने पिता के वियोगमें धरती छोड़कर शीलाचारके भारको उठाकर जिनवरका तीव्रतम तप तपकर, केशव उसो स्वर्गमें जन्म लेकर प्रतीन्द्रपदको प्राप्त हुआ। दोनों ही