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२२. २१. १३]
हिन्दी अनुवाद
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मुनियोंके शरीरमें परम सम निवास करता है, उनको निन्दा करनेवालोंको दुर्गति विलसित होतो है । धूड़ामणिको क्या पेरोंमें रखना चाहिए। जो वन्दनीय हैं क्या उनकी निन्दा करनी चाहिए। जो तूने उस जन्ममें, दुश्चिन्तित दुर्बोल और पाप किया था, इस समय यदि तुम कर सकती हो तो, गतगवं बार-बार पश्चात्तापसे तप कर उसे नष्ट कर दो। परन्तु मेरे पापसमूहमें पापका निवर्तन कैसा ? कि जिसने गुरुपोंके साथ भो दुष्टता की। मायामोहको छोड़कर मनका शोष कर इस प्रकार अपनी निन्दा और गहीं कर, ऋषिपतिको वन्दना कर अपने निवासपर गयी, और हे सखी, में उपवासमें लग गयो ( श्रीमती पायसे कह रही है। जब मेरे पास कुछ भी धन नहीं था, तब भी मुझ दरिद्राने उस समय सुपात्रोंको प्रतिदिन खल दानमें दिया और सर्वजीवोंके प्रति दुष्टताका भाव छोड़ दिया। मैंने दमनपुष्पसे जिनवरकी पूजा की और दुर्लभ { दूसरेसे याचित) तेलसे दीया जलाया।
पत्ता-चाहे इन्द्र पूजा करे, या चाहे राजा या निर्धन पूजा करे। श्रीमती कहती है, यदि मनमें निर्मल भक्ति है तो उसका एक ही फल है, ऐसा मैं कहती है ॥२०॥
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इस प्रकार वहाँपर मैं बहुत समय तक जीकर गुरुके उपदेशका अंशमात्र पालकर फिर आहार और शरीर छोड़कर, पांच परम अक्षरोंको याद कर मैं मर गयी और जाकर, जिसमें देवता रमण करते हैं, ऐसे श्रोप्रभ नामके ईशान विमानमें ललितांग देवकी, अपनी गुतिसे पन्द्रप्रभाको जीतनेवाली में स्वयंप्रभा नामको महादेवी हुई। प्रियतमके मरनेपर छह माह जीवित रहकर और स्वर्गसे न्युन होकर इस समय यहाँ उत्पन्न हुई हूँ। प्रियको स्मरण करते हुए मुझे चन्द्रमा सन्तप्त करता है। देहमें लगा हुआ चन्दन अच्छा नहीं लगता। कामदेव आठों अंगोंको जलाता है, इन्द्रियके चिह्नसे क्या तुम नहीं जानती। यह कहकर उसने पट बुलवाया और स्वामीका चित्र बनाकर पायको बताया। वहींपर उसने अपना पुराना रूप चित्रित किया और चमकते हुए वस्त्रके भीतर रख दिया। दूसरी-दूसरो कोड़ा-परम्पराओं, नदी-सरोवर और गिरिवर स्थानोंको भी उसने लिखा 1 और भी उसने उसमें रतिको रहस्य कोलाओं और पुर्तताके गढ़ भयोंको अंकित कर दिया। यहाँ रहती हुई, यहाँ रमण करनी हुई यह में हूँ और यह वह है। यह कहकर उसने कुछ भी गोपनीय नहीं रखा । सुन्दरीने अपना दिल बता दिया ।