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२३. २०. १४ ]
हिन्दी अनुवाद
वह जयसेन चक्रवर्ती हुआ। होती हुई पुण्यशक्तिका निवारण कौन कर सकता है ? यहाँ भी उसने अपनी भयंकर तलवारसे छह खण्ड धरतीका उपभोग किया। फिर केवलज्ञानरूपी श्रीको धारण करनेवाले सीमन्धर स्वामीके चरणोंके मूलमें चौदह रत्नों और निषियोंको छोड़कर दुधर चरित्रभार उठाकर, विद्युतकी तरह विद्रवित होकर, सोलह भावनाओंका ध्यान कर, नाग-नर और देवेन्द्र जिसका कीर्तन करते हैं, ऐसे तीर्थकरत्वका अर्जन कर, प्राणोंका विसर्जन करते हुए, उड़ती हुई पताकाओंसे युक्त मध्यम ग्रेवेयक विमानमें अहमेन्द्र हुआ। वहीपर तीस सागर प्रमाण आयु जीकर, वह अहमेन्द्र च्युत होकर पुष्कर द्वीपके पूर्व विदेहमें मेरसिरि और ब्यूसिरि नामका गिरि है, उसके पूर्व विदेहमें सुख देनेवाली मनुष्यभूमि मंगलायती नामको वसुधा है। वहाँ रत्नसंचय नामके नगरमै श्रावक तोका पालन करने वाले राषअजितजयका, सुन्दर स्वप्नावलीको देखनेवाली वसुमती देवीका वह पुत्र हुमा ।
पत्ता-वह देव कामदेवके मर्मका निवारण करनेवाला युगाधर परम जिन उत्पन्न हुआ। समस्त सुरवरोंने मेरुपर्वतपर आदरणीय उनका अभिषेक किया ॥१९॥
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वे फिर नर और विद्याधरराजका राजपाट छोड़कर बनके लिए चले गये। अपने मनको रोककर हाथ लम्बे किये हुए वह लगातार स्थित रहे । ज्ञानवान् पापको नष्ट करते हुए, भागमोक्त चरित्रका पालन करते हुए उन्हें संसारमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला और तत्त्वोंका निरूपण करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । उन्होंने मुख्य तीर्थका प्रवर्तन किया, और त्रिभुवनको कुपथपर जानेसे रोका । अविनश्वर वह अक्षय मोक्षके लिए गये 1 परमेश्वरके शरीरका संस्कार, अग्नीन्द्रके द्वारा अपने मुकुटकी आगसे किया गया। बताओ पुण्यके फलसे क्या नहीं होता? इस प्रकार मेरे कथाप्रपंच करनेपर देवोंने अपने हितमें सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। हे-हे मेरे कुल कमलको एकमात्र श्री ललितांग प्रिये, तुम्हारे ललितांगका इन्द्रियोंकी निन्दा करनेवाला हृदय उस समय जिनधर्मस मानन्दित हो गया। हे पुत्री, तुम, जिसमें देव रमण करते हैं, ऐसे अंजना नामके पर्वतको याद करती हो। हम और तुम, महासरोवरवाले नन्दीश्वर द्वीप गये थे। पुत्री तुम याद करती हो, प्रचुर कमलोंवाले स्वयम्भूरमण समुद्र के जलमें हमने क्रीड़ा की थी। और फिर जाकर, बारवको रोक देनेवाले पिहितानवको निर्वाण पूजा की थी।
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