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२६. ५.१४]
हिन्दी अनुवाद
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वहाँ सञ्जनके निवासको दूषित करनेवाला दुर्जन नहीं है। जहाँ न खोल है, न शोष कोष है और न दोष न छींक, न जंभाई और न बालस्य देखा जाता है । न नींद और नेत्र निमीलन । न रात न दिन । न ध्वान्त ( अन्धकार ), न धाम । न इष्ट वियोग और न कर्म । न अकाल मृत्यु, न चिन्ता, न दीनता, कभी भी कहीं शरीर दुबला नहीं । न पु विसर्जन और न मूत्रका प्रवाह । न लार, न कफ, न पित्त और न जलन, न रोग, न शोक, और न विषाद, न क्लेश, न दास और न कोई भी राजा सभी मनुष्य सुरूप, सुलक्षण और निरभिमानी, सुभव्य और सभी समान उनके मुखसे सुगन्धित श्वास निकलता है, प वज्रवृषभ नाराच संहनन है, तीन पल्य प्रमाण स्थिर आयुका अन्ध है। जहाँ गजेश्वर को दोनों भाई हैं। जहाँ न चोर है, न मारी है न घोर उपसर्ग | आचर्य है कि कुरुभूमि स्वर अधिक विशेषता रखती है ।
प्रता - एक दूसरे के साथ तिलन्ध, दु स्नेहमें बंधे हुए, वहाँ रहते है दोनोंका नाना प्रकारके सुख भोगते हुए समय बीतने लगा ||४||
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शार्दूलादि भी ( सिंह, वानर, सुअर और नकुल ) वहीपर स्थूल और दोघं ब मनुष्य हुए। मोगभूमिमें जन्म पानेवाले वज्रजंध राजाके जीवको, अपनो महिला ( श्रीम साथ रहते हुए, कल्पवृक्षोंकी लक्ष्मीका निरीक्षण करते हुए, किसी कार्यसे आये हुए, सम्यक का भाषण करनेवाले, किसी सूर्यप्रभ देवके दिशापयोंको आलोकित करनेवाले विमानको अपना पूर्वभवका ललितांग चरित याद या गया। जब वह अपने मनमें विस्मित था, अं संसारसे निवेदभाव हो रहा था, तम्रो आकाशसे एक वारणयुगल मुनि उतरे 1 आते हुए उसने पुकारा और एक ऊंचे आसन पर बैठाया। शिष्यने सिरसे नमस्कार किया और अपनी पूर्ण वाणी से निवेदन किया- "आप कौन हैं, किस लिए यह आगमन किया, हमारा स्नेह हुआ मन आपके ऊपर क्यों है ?" इसपर गुरु बोले
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पत्ता - जब तुम अलकापुरीमें राजा ये महावल नामसे तब में मन्त्र और सद् जाननेवाला तुम्हारा स्वर्यबुद्ध मन्त्री था ॥५॥