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२३. ११.१३]
हिन्दी अनुवाद उसमें प्रभाकरी नामकी प्रसिद्ध नगरी है। जिन्होंने त्रिजगपतिके तीन छत्रोंको धारण किया है, जिन्होंने जगको सोन रत्नोंका उपदेश दिया है, जिन्होंने तीनों कालोंको परिगणित किया और समझा है, जिन्होंने जन्म-जरा और मृत्युका नाश किया है । जिन्होंने आगमसे तीनों भुबनोंको सम्बोधित किया है, स्थिर चर्यासे जिन्होंने तीन गुप्तियोंको धारण किया है, जिन्होंने जोवको तीनों गतियोंको जान लिया है, जिन्होंने रसादिमें तीनों ग को नष्ट कर दिया है, जिनके तीनों शरीर (कार्मिक, औदारिक और तेजस ) जा चुके हैं, जिसमें नीचेके तीनों ध्यान छोड़ दिये हैं, जिन्होंने क्रियाछेदोपस्थापनाका प्रयल किया है, जो केवलज्ञान गुणसे युक्त हैं, जो कभी शिथिल नहीं हुए, जो अपने यलमें लोन हैं, ऐसे विनयधर स्वामो और पर्वत शिखरको पूजा कर, मैं जिसमें नागोंके फणमणियोंकी कान्तिसे प्राचीन देवधर आलोकित हैं, प्रथम द्वीपके ऐसे सुमेरु पर्वतपर गया था। वहाँ सुप्रसिद्ध नन्दनवनकी पूर्वदिशामें स्थित जिनभवनमें विद्या की पूजा करते हुए मैंने स्वयं राजाको देखा और उससे कहा
घत्ता-हे विद्याधर राजा, क्या तुम मुझे नहीं जानते कि मैं तुम्हारा पुत्र था श्रीवर्मा नामका । कि जब बलभद्र भाईके मरनेपर मैं रो रहा था ||१०||
तब तुम देवने मुझे सम्बोधित किया था। उस समय क्या तुम यह नहीं जानते। श्रीधर राजाको गहिणी मनोहराके जन्मको क्या तुम मनमें याद नहीं करते। आज भी विषयरूपी विषका भोग क्यों करते हो। हे मित्र, यह विष एक क्षणमें मार देगा । विषय-दिष भव-भवमें संहार करता है। तब उसीने इस बातको ग्रहण कर लिया। सुरवरराजका अभिनन्दन कर विद्याधर सहसा अपने नगर आ गया। डाइनके समान योजाओंका भक्षण करनेवाली अपनी भूमि, अपने पुत्र महिपंकको देकर मुनिरूपी गुरुके द्वारा बताये गये उग्र व्रतमार्ग में अपने हित के लिए व्यवसाय करने लगा। तरु कोटर-गिरि-विवरों में रहनेवाली बहुत-सी विद्यारियों के साथ उसने कनकावली व्रत ग्रहण कर लिया। और उसको बिरसंचित पापावलि गल गयो । समय बीतने पर उस महीधरका अन्तकाल आ गया । प्राणियोंके प्राणों की रक्षा करनेवाला वह राजा प्राणत स्वर्ग में देवेन्द्र हुआ 1
घसा-वह बीस सागर पर्यन्त वही जीवित रहा और कालके साथ बा बामे चय। धातको खण्ड में तरुओंसे आछन्न जो पूर्व मेरु है-॥११॥
१, पाणिभुक्ता, लांगली और गोमूत्रिका ।