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२२. ५. १३]
हिन्दी अनुवाद
उसमें वजबाह नामका राजा है, जिसने वैभवमें इन्द्रको मात दे दी है। जिसकी कीर्ति दसों दिगन्तोंमें फेल गयी है और धेष्ठ दिग्गजोंपर आरूढ़ है, जिसकी तलवारसे शत्रुका अन्त हो चुका है, जिसका राज्य यात्रुके द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, जिसका कोश त्यागसे पवित्र है । जिसने त्रिजगको अपने कुटुम्बके समान चिन्ता की है, जिसने अपने कुलको षर्मसे उयोतित किया है, जिसने अपना चित्त जिन-चरणयुगल में लगाया है, जो उसकी वसुन्धरा नामकी देवी है, जो प्रेमरूपी धान्यके लिए वर्षायुक्त भूमि है । ( वह ललितांग ) स्वर्गसे उसके गर्भवासमें अवतरित हुआ और नो माहमें उसके उदरसे बाहर आया। उससे वनजंघने ललितांगको पुत्ररूपमें जन्म दिया जो मानो मनुष्यरूपमें कामदेव था। धुंघराले बालों ऋजुक ( सीधा-सरल ) शरीर था। वेगशील जांघोंसे दोघं नेत्रवाला था। क्षीण मध्यभाग, स्थूल भुजयुगल, विशाल कटितल और वक्षःस्थलसे नाभि शोभित है। गम्भीर स्वर, छत्रके आधारस्वरूप शिर, कोमल चरणों और परुष हाथों तथा दूसरे-दूसरे प्रशस्त लक्षणोंसे जो
पत्ता- लक्षणोंके सूहा बिना कोई विचार नही विषालाने एक जगह पुंजीभूत कर दिया था । वज्रसे अंकित चरणकमलवाला दन समान शरीर वह वनजंघ था ||४||
जब वह कुमार वहाँ बढ़ने लगा, तभी उस केवल ईशान स्वर्गमें, प्रियके विरहसे पीड़ित स्वयंप्रभा विलाप करती है, मुझे मानसरोवर अच्छा नहीं लगता, हा ! हे ! स्वर्गलोक फोका पह गया है, स्वामीके बिना मैं परवश हो गयी है। हा कल्पक्ष! तुम क्यों फूलते हो, पतिके मरनेपर कष्ट मुझे छेदे डालता है। हा तुम्बरु ! तुम्हारा गायन पर्याप्त हो चुका है, प्रियके बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। ललितांगको मैं कहाँ देखू? हा,हे स्वामी ! किस प्रकार कहाँ रहूँ। होनेवाली भवितव्यताको कोन टाल सकता है। यह कर्म देवसे भी बलवान है। मेरुके समान वर्णवाली, तपस्विनी-गृहिणीके समान कुछ-कुछ सुन्दरी मन्दराचल गयो। सौमनस वनको पूर्वदिशाके जिनमन्दिरमें जिनप्रतिमाको सिरपर धारण कर मर गयो । वहीं पूर्व-विदेहमें कमलों और सरोवरों से युक्त सफेद घरोंवाली पुण्डरीकिणी नगरी है।
पत्ता-जहां गृहशिखर पर नृत्य करते हुए तथा नवजलकणोंका आस्वाद करनेवाले मयूरने गृहशिखरोंके ऊपर लटकते हुए मेघोंको चूम लिया ॥५॥