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२२, ३. १४]
हिन्दी अनुवाद उद्धार करनेवालेको कुवलय पुष्पोंसे, शुभके कारण और कुन्दके समान दातवालेकी कुन्दपुष्पोंसे, कामदेवसे दूर रहनेवाले को सिन्दूरसे, कलत्रको आशाका नाश करनेवालेकी मन्वार पुष्पोंसे, स्वाधीन और शरीरको जोतनेवालेकी वासन्ती पुष्पों ( अतिमुक्तक ) से, मुनिसमूहका परिग्रह करनेवालेको जुहो पुष्पोंसे; जो तीनों लोकोंमें तिलक ( श्रेष्ठ ) समझे जाते हैं, और जिनका मेरुपर अभिषेक किया जाता है, उनका तिलक पुष्पोंसे, बन्धका नाश करनेवाले का बघूक पुष्पोंसे, अशरीरमाही केवलज्ञानबालेका वकुल पुष्पोंसे, शीलरूपी सुसलिलवालेका कपूरोंसे, आक्रन्दनको शाश्वतरूपसे शान्त करनेवालेका चन्दनोंसे, निषिघटोंको दिखानेवालेका धूपघटोंसे, त्रैलोक्यदीपकका दीपकोंसे, लक्ष्मीरूपी लताके वृक्षका मालती पुष्पोंसे, उसने पवित्र महंत जिनको पूजा की। और अच्यत कल्प जिनालयमें जाकर चैत्यवक्षके नीचे यतिवरका ध्यान कर, ललितांगने एक क्षणमें अपने प्राण छोड़ दिये । पुण्यके नष्ट होने से उसका शरीर विलीन हो गया।
पत्ता-जम्बूद्वीपका मलंकार मनुष्यको जननी, चिन्तित शुभको प्रदान करनेवाली, जनभूमि पुष्कलावती नामकी नगरी सुमेरुपर्वतके पूर्व विदेहमें है ॥२॥
उसमें क्रूर शत्रुसमूहको नष्ट करनेवाला उत्पलखेट नामका नगर है। जहाँ शाखाओंका उद्धरण केवल नन्दनवन में है, आनन्दसे रहनेवाले वहाँके लोगोंमें उद्धारको आवश्यकता नहीं है। जहां लोग विनयसे नम्रमुख रहते हैं, वहाँ केवल ऊंट ही अपना मुख ऊंचा रखनेवाला है। जहां हायमें कंगन और पैरोंमें नुपुर बांधा जाता है, वहां और कोई दुःखसे ज्याकुल नहीं है। जहाँ तेलीके घर में बिना स्नेहके खल देखे जाते हैं, और सब लोग सुजन सस्नेही हैं। जहाँ व्याषि चित्रकारों द्वारा दीवालोंपर लिखी जाती है, नरसमूहके द्वारा शरीर में कोई बीमारी नहीं देखी जाती। जहाँ व्याकरणमें ही सर सन्धान (स्वर सन्धि) देखा जाता है वात्रुके लिए भयंकर राजयुद्ध में सरसन्धान नहीं देखा जाता है जह! हरि ( अश्य ) यवर है, वहीं नारीगण हतवर नहीं हैं। जहां बास छिद्र सहित है, वहाँके लोग छिद्र सहित नहीं हैं। जहाँ कुनटमें रसका क्षय है, बाजारमागोमें रसक्षय नहीं है । जहाँ तलवारोंका ही पानी अपेय है, वहाँक सरोवरों और नदियोंका पानी अपेय नहीं है । जहाँ अंजन नेत्रोंमें है, वहाँके तपस्वियोंमें अंजन (पाप) नहीं है । जहाँ गायभंग (नागभंग-- न्यायभंग) गारुड़ मन्त्र में हैं, धनके उपार्जन में जहां न्यायका भंग नहीं है। जहां संकर शिव है, वहां वर्णव्यवस्थामें संकर नहीं है। जहाँ ग्वाल दोहक ( दूध दुहनेवाले ) हैं, वहाँके अनुचर द्रोही नहीं हैं । जहाँ हाथोको ही मातंग कहा जाता है, वहाँ लोग मायाको प्राप्त नहीं होते।
घत्ता-लोग सज्जनके साथ कलह नहीं करते, कोई भी अप्रिय नहीं बोलता । जहाँ प्रांगणप्रांगण और वापिकाओं में कल-हंसोंकी गतिका प्रसार देखा जाता है ॥३॥