Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
ताव देसकरणोवसामणा णाम वुच्चदि । अधवा णवुंसयवेदे उवसंते सेसेसु च अणुवसंतेसु एसा देसकरणोवसामणा णाम भवदि । कुदो १ करणपरिणामेहिं कम्मपदेसस्सेव तत्थोवसंतभावदंसणादो ति । एत्थ पुण पुव्वत्तो चैव अत्थो पहाणभावेणावलंबेयब्वो, सव्वरसेवानंतरोवण्णासस्स सव्वकरणोवसामणाभेदस्स तत्थेवंत भावन्भुवगमादो । अण्ण हा पसत्थोवसामणाभेदस्सेदस्स अप्पसत्थोव सामणासरूव देसकरणोवसामणाए अंतब्भावविरोहादो |
नहीं प्राप्त होता, तब तक देशकरणोपशामना कही जाती है । अथवा नपुंसकवेदके उपशान्त होने पर और शेष चारित्रमोहनीय कर्मोंके अनुपशान्त होने पर यह देशकरणोपशामना होती है, क्योंकि करण परिणामोंके द्वारा विवक्षित कर्मपु जका ही वहाँ उपशमपना देखा जाता है। जयधवलाकार कहते हैं कि यहाँ पर तो पूर्वोक्त अर्थका ही प्रधानरूपसे अवलम्बन करना चाहिये, क्योंकि अनन्तर पूर्व जो कुछ कहा गया है वह सब सर्वकरणोपशामनाके भेदरूप है, अतः उसका उसीमें अन्तर्भाव स्वीकार किया गया है । अन्यथा प्रशस्त उपशामनाके भेदरूप इसका अप्रशस्त उपशामनास्वरूप देशकरणोपशामनामें अन्तर्भाव स्वीकार करने पर विरोध आता है ।
विशेषार्थ - यहाँ करणोपशामनाके देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना ऐसे दो भेद करके उनके स्वरूप पर विशेष प्रकाश डाला गया है। संसार अवस्थामें अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचना आदि करणोंके माध्यम से जो परिमित कर्मपुंजका उपशामनारूप होकर उदयके अयोग्य रहना वह देशकरणोपशामना है और दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में अप्रशस्त उपशामना, निघत्ति और निकाचनाको व्युच्छित्ति होनेके बाद अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयके पूरे कर्मपुजको अन्तर्मुहूर्तकालके लिए उदयके अयोग्य करना सर्वोपशामना है । या चारित्रमोहनीयको अपेक्षा अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामना, निर्धात्ति और निकाचनाकी व्युच्छित्ति हो कर अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय द्वारा चारित्रमोहनीयके पूरे कर्मपुजको अन्तर्मुहूर्तकालके लिए उदयादिके अयोग्य करना सर्वोपशामना है । यहाँ दर्शनमोहनीयका उपशम होने पर भी उसमें संक्रमणकरण और अपकर्षणकरणकी प्रवृत्ति होने पर भी पूरा कर्मपुज विवक्षित समयके लिए उदयके अयोग्य बना रहता है, इसलिए इसे सर्वोपशामनारूप माननेमें कोई बाधा नहीं आती। यह देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना इन दोनों में भेद है । किन्तु कुछ आचार्य देशकरणोपशामनाकी अन्यथा प्ररूपणा करते हुए कहते हैं कि ( १ ) यद्यपि अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचनाकरणी व्युच्छित्ति हो जाती है और ऐसा होने पर जो कर्मपुंज पहले उक्त रूपसे परिणत था वह अब उस रूपसे परिणत नहीं रहा यही यहाँ देशकरणोपशामना है। इस विवक्षामें उक्त अप्रशस्त तीन करणोंकी व्युच्छित्ति ही देशकरणोपशामना है । इससे अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें विवक्षित कर्मपुंजी यथासम्भव अपकर्षण और उत्कर्षण आदि क्रिया सम्भव हो जाती है । ( २ ) अथवा नपुंसक वेदका उपशम करते समय जब तक उसका पूरा उपशम नहीं होता तब तक उसकी अपेक्षा देशकरणोपशामना जानना चाहिये। ( ३ ) अथवा नपुंसकवेदका उपशम हो जाने पर आगे जब तक क्रमसे शेष चारित्रमोहनीयका पूरी तरहसे उपशम नहीं होता तब तक उपशमके जितने प्रकार बनते हैं वे सब देशकरणोपशामना है। किन्तु अन्य आचार्योंका यह कथन प्रकृतमें इसलिए ग्राह्य नहीं है, क्योंकि इससे प्रशस्त उपशामनाकी क्रमिक उपशामनाको अप्रशस्त उपशामना माननेका प्रसंग प्राप्त होता है, जो युक्त नहीं है, अतः सर्वोपशामना से देशकरणोपशामनाको भिन्न ही जानना चाहिये ।