Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णाणं डिदिसंतकम्मं द्विदिसंतकम्मं डिदिबंधो च कथं पयदि त्ति एवंविहाए आसंकाए णिरारेगीकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंमो____ *ताधे हिदिसंतकम्मं संजलणाणं संखेन्जाणि वस्ससहस्साणि । हिदिवंधो सोलस वस्साणि अंतोमुहुत्तणाणि ।
६४३९. पुव्वं पि सत्तणोकसायखवणद्धाए सम्वत्थ संजलणाणं द्विदिसंतकम्म संखेज्जवस्ससहस्सपमाणं चेव, किंतु एदम्मि अवत्थंतरे संखेज्जेहिं हिदिखंडयसहस्सेहि संखेज्जगुणहाणीए सुट्ठ ओवट्टिदूण तत्तो संखेज्जगुणहीणं होदूण संखेज्जवल्ससहस्स पमाणमेदेसि टिदिसंतकम्मं जादं । द्विदिबंधो वि अंतरदुसमयकदमादि कादूण संखेज्जवस्सिओ होदणागच्छमाणो छण्णोकसायक्खवगचरिमसमये संजलणाणं संपुण्णसोलसवस्सपमाणो होदण एण्हिमंतोमुहत्तणसोलसवस्समेत्तो जादो । एत्तोप्पहुडि संजलणाणं हिदिबंधोसरणस्स अंतोमुहुत्तपमाणेण पत्तिदंसणादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ।
.४४०. तिण्हं धादिकम्माणमेत्थ द्विदिबंधो द्विदिसंतकम्मं च संखेज्जवस्ससहस्साणि । णामागोदबेदणीयाणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि त्ति पुव्वुत्तो चेव अत्थो एत्थ वि अणुगंतव्यो, तत्थ पयारंतरासंभवादो। एवं पढमसमयअस्सकण्णकरणकारगस्स संजलणाणं द्विदिबंध-ट्ठिदिसंतकम्माणं पमाणविणिण्णयं कादूण संपहि तत्थेव तेसिमणुभागसंतकम्म
काण्डकघात करनेके लिए आरम्भ करता है। अब उस अवस्थामें क्रोधादि संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म और स्थितिबन्ध किस प्रकार प्रवृत्त होता है इस प्रकार ऐसी आशंकाका निराकरण करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* उस समय संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है तथा स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम सोलह वर्षेप्रमाण होता है।
$४३९. यद्यपि पहले भी सात नोकषायोंकी क्षपणाके समय सर्वत्र संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण ही होता है, किन्तु इस दूसरी अवस्थामें संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके घात द्वारा संख्यातगुणा हीन अच्छी तरह कम होकर उससे इनका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन होकर संख्यात हजार वर्षप्रमाण हो जाता है। स्थितिबन्ध भी अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होनेके दूसरे समयसे लेकर संख्यात वर्षप्रमाण होकर आता हुआ छह नोकषायोंकी क्षपणाके समय संज्वलनोंका सम्पूर्ण सोलह वर्षप्रमाण होकर इस समय अन्तर्मुहूर्त कम सोलह वर्षप्रमाण हो गया है, क्योंकि यहाँसे लेकर संज्वलनोंके स्थितिबन्धापसरणकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाणरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है इस प्रकार यह यहांपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है।
४४०. तीन घाति कर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म यहाँपर संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है तथा नाम, गोत्र और वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण और स्थितिसत्कर्म असंख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है इस प्रकार यह पूर्वोक्त अर्थ यहाँ भी जानना चाहिये, क्योंकि इन कर्मोके विषयमें दूसरा कोई प्रकार सम्भव नहीं है। इस प्रकार अश्वकर्णकरणकारकके प्रथम समयमें संज्वलनोंके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका निर्णय करके