Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 379
________________ ३३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तदणंतरहेट्ठिमफहयादिवग्गणादो उक्कस्ससंखेज्जभागुत्तरा होदूण संखेज्जभागुत्तरवड्डीए पज्जवसाणं पत्ता ति। ६ ४६२. संपहि एत्तो उवरि जहाकममसंखेज्जभागुत्तरवड्डीए णेदव्वं जाव आदीदो प्पहुडि जहण्णपरित्ताणंतमेत्तफद्द याणं चरिमफद्दयस्सादिवग्गणा तदणंतरहेट्ठिमफद्दयादिवग्गणादो उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जभागुत्तरा होदूण असंखेज्जदिभागवड्डीए पज्जवसाणं पत्ता त्ति । ४६३. संपहि एत्तो उवरि अणंतभागवड्डीए अणंताणि फद्दयाणि णेदव्वाणि जाव अपुव्वाणं चरिमफद्दयं ति, सम्वत्थ रूवणचडिदद्धाणेण हेडिमफद्दयादिवग्गणाए माजिदाए. तत्थ किंचूणेगमागमेत्तेण विसेसाहियत्तं ददुव्वं । एदं च सव्वं मणेणावहारिय ‘एवमणंतराणंतरेण गंतूणेत्ति' वत्तं । एवमेदीए संखेज्जासंखेज्जाणंतभाग परिवड्डीए समयाविरोहेण गंतूणेत्ति वुत्तं होइ । ४६४. एत्थेव चरिमवियप्पस्स परूवणट्ठमुवरिमो सुत्तावयवो–'दुचरिमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणाए' इच्चादिओ। एत्थाणंतभागेणेत्ति वुत्ते अपुव्वफद्दयसलागाहिं रूवणाहिं दुचरिमफद्दयादिवग्गणं भागं घेत्तण भागलद्धेण 'किंचूणेण विसेसाहियत्तं दट्ठव्वं । एवमणंतराणंतरादो अपुन्वफद्दयादिवग्गणाणमविभागपडिच्छेदप्पाबहुअं भाग आदिके क्रमसे जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण स्पर्धकोंमेंसे अन्तिम स्पर्धककी आदिवर्गणा तदनन्तर अधस्तन स्पर्धक वर्गणासे उत्कृष्ट संख्यात भाग अधिक होकर संख्यात भागवृद्धिके अन्तको प्राप्त होती है। $४६२. अब यहाँसे आगे क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा तबतक ले जाना चाहिये जब जाकर आदिसे लेकर जघन्य परीतानन्तप्रमाण स्पर्षकोंमें अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणा तदनन्तर अधस्तन स्पर्धककी आदि-वर्गणासे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात भागप्रमाण अधिक होकर असंख्यातभागवृद्धिके अन्तको प्राप्त होती है। $४६३. अब यहाँसे आगे अनन्तभागवृद्धिके द्वारा अनन्त स्पर्धाकोंको अपूर्व स्पर्षकोंसम्बन्धी अन्तिम स्तर्षकके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिये, क्योंकि सर्वत्र एक कम जितने स्थान आगे गये हों उनसे अधस्तन स्पर्धककी आदि वर्गणाके भाजित करनेपर उसमें कुछ कम एक भागरूपसे विशेषाधिकपना जानना चाहिये । इस सब बातको मनसे विचारकर सूत्रमें 'एवमणंतराणंतरेण गंतूण' यह वचन कहा है। इस प्रकार इस संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि और अनन्तभागवृद्धिरूपसे समयके अविरोधपूर्वक ले जाकर जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६४६४. अब यहींपर अन्तिम विकल्पका कथन करनेके लिये आगेका 'दुचरिमस्स फद्दयस्स आदिवग्गणाए' इत्यादि सूत्रवचन आया है। यहाँपर 'अणंतभागेण' ऐसा कहनेपर एक कम अपूर्वस्पर्धककी शलाकाओंसे द्विचरिम स्पर्षककी आदिवर्गणाको भाजित कर जो भाग लब्ध आवे उससे कुछ कम विशेष अधिक जानना चाहिये । इस प्रकार अनन्तर तदनन्तरके क्रमसे अपूर्व

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