Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ ४७५. संपहि चउण्हं पि कसायाणं चरिमस्स अपुवफद्दयस्स आदिवग्गणा तुल्ला त्ति जं सुत्ते वुत्तं तमंतदीवयंत्तेण हेट्ठा वि अणंतेसु उद्देसेसु अपुव्वफयाणमादिवग्गणाओ सरिसीओ अस्थि त्ति घेत्तवाओ। तं जहा–संदिट्ठीए ताव कोहादिवग्गणापमाणमेदं ठविय १०५/ माणादिवग्गणाए ८४ | एदीए सोहिदाए सुद्धसेसपमाणमेत्तियं होदि २१ एदं च माणादिवग्गणाए चदुहिं रूवेहिं ओवट्टिदाए आगच्छदि । ४ एदं च विसेसागमणणिमित्तभागहारं दुरूवाहियमेत्तमुवरिं चढिदूणावद्विदमाणसंजलणापुव्वफद्दयादिवग्गणाभागहारमेत्तं चेव अद्धाणमुवरि गंतूण ट्ठिदिकोहसंजलणापुवफद्दयादिवग्गणा च सरिसी होदि, परिप्फुडमेव तत्थ तहाभावोवलंभादो । एवं माण-मायाणं माया लोभाणं च आदिवग्गणाओ अस्सिदण तेसिं चडिद्वाणं साहेयव्वं । तत्थ कोहसंजलणस्स चडिदद्धाणमेदं ४ | माणसंजलणस्स चडिदद्धाणमेदं ५। मायासंजलणस्स चडिदद्धाणमेत्तियं होदि ६। लोहसंजलणस्स चडिदद्धाणमेत्तियमिदि घेत्तव्वं ७ । एवमेदेहि चडिदद्धाणेहिं उवलक्खियाणं कोहादिसंजलणपडिबद्धाणमपुवफद्दयाणमादिवग्गणाओ पढमवारं सरिसीओ जादाओ ।
तात्पर्य यह है कि क्षपक अवेदकके प्रथम समयमें पूर्व स्पर्धकोंसे नीचे जो अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना होती है, उनमेंसे प्रथम स्पर्धाकोंकी आदि वर्गणाके जो अविभागप्रतिच्छेद रचे जाते हैं वे क्रोधादिसंज्वलनोंके उत्तरोत्तर अनन्तवें भागहोन अनन्तवें भागहीन प्राप्त होते हैं यह उक्त दोनों गणित पद्धतियोंसे सिद्ध किया गया है।
$ ४७५. अब चारों ही कषायोंके अन्तिम अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा समान होती है ऐसा जो सूत्रमें कहा है वह अन्तदीपकरूपसे नीचे भी अनन्त स्थानोंमें अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएँ सदृश होती हैं यह ग्रहण करना चाहिये । वह जैसे-संदृष्टिकी अपेक्षा सर्वप्रथम क्रोधकी आदि वर्गणाके इस प्रमाणको १०५ स्थापित कर इसमेंसे मानकी आदि वर्गणा ८४ को घटा देनेपर जो शेष रहता है उसका प्रमाण इतना होता है-२१।१०५ - ८४ = २१ और यह मानसंज्वलनकी आदि वर्गणामें चारका भाग देनेपर आता है-८४ : ४ = २१ । और यह ४ विशेषप्रंमाण लानेके लिए भागहार है । अतः इससे एक अधिक स्थान ऊपर जाकर जो मानसंज्वलनके अपूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणा स्थित है और वह उक्त भागहारप्रमाण ही स्थान ऊपर जाकर जो क्रोधसंज्यलनके अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणा है वह समान है, क्योंकि स्पष्टरूपसे वहाँ पर उस प्रकारकी उपलब्धि होती है। इसी प्रकार मान-माया तथा माया-लोभकी आदि वर्गणाओं का आश्रय करके कितने स्थान ऊपर चढ़कर उनकी आदि वर्गणाएं परस्परमें समान होती हैं इस प्रयोजनसे ऊपर चढ़कर प्राप्त हुए स्थानोंको साध लेना चाहिये । वहाँ क्रोधसंज्वलनका ऊपर चढ़कर प्राप्त हुआ स्थान यह है-४। मानसंज्वलनका ऊपर चढ़कर प्राप्त हुआ स्थान इतनेवाँ है-५ । मायासंज्वलनका ऊपर चढ़कर प्राप्त हुआ स्थान इतनेवाँ होता है ६ । तथा लोभसंज्वलनका ऊपर चढ़कर इतनेवाँ स्थान ग्रहण करना चाहिये ७। इस प्रकार इतने ऊपर चढ़कर प्राप्त हुए स्थानोंसे उपलक्षित क्रोध, आदि संज्वलनोंसे प्रतिबद्ध अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएँ प्रथम बार सदृश हो जाती हैं।