Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ४७८. एत्थ अप्पप्पणो खंडयद्धाणेण सग-सगअपुव्वफद्दयसलागाओ ओवट्टिय खंड यसलागाओ समुप्पाएयव्वाओ। संदिट्ठीए तासिं पमाणमेदं ४ । तदो खंडयसलाग मेत्तुद्दे सेसु अपुव्वफहयाणमादिवग्गणाओ सरिसीओ होति त्ति घेत्तव्वं ।
४७९. एवमेदं परूविय संपहि अपुव्वफद्दयाणं पमाणागमणट्ठमेयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरस्स ठविदभागहारपमाणमेत्तियमिदि जाणावणट्ठमुवरिमप्पाबहुअसुत्तं भणइ
* पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स जं पदेसग्गमोकजिदि तेण कम्मस्स अवहारकालो थोवो । अपुव्वफदएहिं पदेसगुणहाणिहाणंतरस्स अवहारकालो असंखेजगुणो । पलिदोवमवग्गमूलमसंखेजगुणं ।
क्रोधके उपान्त्य स्पर्धककी आदि वर्गणा १०५ ४ (४ + ४ + ४) १२ = १.६० मानके , " "
८४४ (५ + ५ + ५) १५ = १२६० मायाके ,
७०४ (६ + ६ + ६) १८ = १२६० लोभके , "
६०४ (७ + ७ + ७) २१ = १२६० उक्त कषायोंके अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणाएँ इस प्रकार होंगीक्रोधके अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणा १०५४ (४+४+४+४) १६ = १६८० मानके , " "
८४४ (५+५+५+५) २० = १६८० मायाके , " "
७०४(६+६+६+६) २४ = १६८० लोभके
६०४ (७+७+७+७) २८ = १६८० $ ४७८. यहाँपर अपने-अपने काण्डकप्रमाण स्थानसे अपने-अपने अपूर्व स्पर्धकोंकी शलाकाओंको भाजित कर काण्डकप्रमाण शलाकाएं उत्पन्न करनी चाहिये। अंक संदृष्टि में उनका प्रमाण ४ है । इसलिये काण्डकोंकी शलाकाप्रमाण स्थानोंमें अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएँ सदृश होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां अंक संदृष्टिमें क्रोधादि प्रत्येकके सब काण्डकोंकी संख्या ४ है। अतः उसे अपने-अपने पूर्वोक्त अपूर्व स्पर्धकोंकी शलाकाओंसे गुणित करनेपर क्रोध संज्वलनकी ४४४ = १६, मानसंज्वलनको ४४ ५ = २०, मायासंज्वलनकी ४४६ = २४ और लोभसंज्वलनकी ४४७ = २८ शलाकाएं उत्पन्न होती हैं और अपने-अपने इन अपूर्व स्पर्धकोंकी उक्त संख्या १६, २०, २४ और २८ में प्रत्येक कषायके एक काण्डकके प्रमाण अर्थात् उसके अपूर्व स्पर्धकोंकी संख्याका भाग देनेपर प्रत्येक कषायके काण्डकोंका प्रमाण ४ आता है यह निश्चित होता है। इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि जैसे पहली और दूसरी बार अपने-अपने विवक्षित स्थान जानेपर चारों कषायोंके अन्तिम आदि स्पर्धककी आदि वर्गणा समान होती है वैसे ही उपान्त्य और अन्त्य स्पर्धककी आदि वर्गणा भी समान घटित कर लेनी चाहिये ।
६४७९. इस प्रकार इसका कथन करके अब अपूर्व स्पर्धकोंका प्रमाण लानेके लिये एक प्रदेशणहानि स्थानान्तरके स्थापित किये गए भागहारका प्रमाण इतना है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके अल्पबहुत्व सूत्रको कहते हैं
* प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारकक जो प्रदेशज अपकर्षित किया जाता है उससे कर्मका अवहार काल स्तोक है । उससे अपूर्व स्पर्धकोंकी अपेक्षा प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका अवहार काल असंख्यातगुणा है। तथा उससे पल्योपमका