SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ४७८. एत्थ अप्पप्पणो खंडयद्धाणेण सग-सगअपुव्वफद्दयसलागाओ ओवट्टिय खंड यसलागाओ समुप्पाएयव्वाओ। संदिट्ठीए तासिं पमाणमेदं ४ । तदो खंडयसलाग मेत्तुद्दे सेसु अपुव्वफहयाणमादिवग्गणाओ सरिसीओ होति त्ति घेत्तव्वं । ४७९. एवमेदं परूविय संपहि अपुव्वफद्दयाणं पमाणागमणट्ठमेयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरस्स ठविदभागहारपमाणमेत्तियमिदि जाणावणट्ठमुवरिमप्पाबहुअसुत्तं भणइ * पढमसमयअस्सकण्णकरणकारयस्स जं पदेसग्गमोकजिदि तेण कम्मस्स अवहारकालो थोवो । अपुव्वफदएहिं पदेसगुणहाणिहाणंतरस्स अवहारकालो असंखेजगुणो । पलिदोवमवग्गमूलमसंखेजगुणं । क्रोधके उपान्त्य स्पर्धककी आदि वर्गणा १०५ ४ (४ + ४ + ४) १२ = १.६० मानके , " " ८४४ (५ + ५ + ५) १५ = १२६० मायाके , ७०४ (६ + ६ + ६) १८ = १२६० लोभके , " ६०४ (७ + ७ + ७) २१ = १२६० उक्त कषायोंके अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणाएँ इस प्रकार होंगीक्रोधके अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणा १०५४ (४+४+४+४) १६ = १६८० मानके , " " ८४४ (५+५+५+५) २० = १६८० मायाके , " " ७०४(६+६+६+६) २४ = १६८० लोभके ६०४ (७+७+७+७) २८ = १६८० $ ४७८. यहाँपर अपने-अपने काण्डकप्रमाण स्थानसे अपने-अपने अपूर्व स्पर्धकोंकी शलाकाओंको भाजित कर काण्डकप्रमाण शलाकाएं उत्पन्न करनी चाहिये। अंक संदृष्टि में उनका प्रमाण ४ है । इसलिये काण्डकोंकी शलाकाप्रमाण स्थानोंमें अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएँ सदृश होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये। विशेषार्थ-यहां अंक संदृष्टिमें क्रोधादि प्रत्येकके सब काण्डकोंकी संख्या ४ है। अतः उसे अपने-अपने पूर्वोक्त अपूर्व स्पर्धकोंकी शलाकाओंसे गुणित करनेपर क्रोध संज्वलनकी ४४४ = १६, मानसंज्वलनको ४४ ५ = २०, मायासंज्वलनकी ४४६ = २४ और लोभसंज्वलनकी ४४७ = २८ शलाकाएं उत्पन्न होती हैं और अपने-अपने इन अपूर्व स्पर्धकोंकी उक्त संख्या १६, २०, २४ और २८ में प्रत्येक कषायके एक काण्डकके प्रमाण अर्थात् उसके अपूर्व स्पर्धकोंकी संख्याका भाग देनेपर प्रत्येक कषायके काण्डकोंका प्रमाण ४ आता है यह निश्चित होता है। इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि जैसे पहली और दूसरी बार अपने-अपने विवक्षित स्थान जानेपर चारों कषायोंके अन्तिम आदि स्पर्धककी आदि वर्गणा समान होती है वैसे ही उपान्त्य और अन्त्य स्पर्धककी आदि वर्गणा भी समान घटित कर लेनी चाहिये । ६४७९. इस प्रकार इसका कथन करके अब अपूर्व स्पर्धकोंका प्रमाण लानेके लिये एक प्रदेशणहानि स्थानान्तरके स्थापित किये गए भागहारका प्रमाण इतना है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेके अल्पबहुत्व सूत्रको कहते हैं * प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारकक जो प्रदेशज अपकर्षित किया जाता है उससे कर्मका अवहार काल स्तोक है । उससे अपूर्व स्पर्धकोंकी अपेक्षा प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका अवहार काल असंख्यातगुणा है। तथा उससे पल्योपमका
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy