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________________ खवगसेढीए अपुव्वफद्दयपरूवणा ३४५ ६ ४७६. तत्तो उवरि पुणो वि एत्तियमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण विदियवारं सरिसीओ होति । ___४७७. एवमप्पप्पणो चडिदद्धाणपमाणमेगखंडयं कादूण णेदव्वं जाव दुचरिमखंडयमेत्तद्धाणं गंतूण सव्वेसिमादिवग्गणाओ सरिसीओ जादाओ त्ति । तत्तो परमप्पप्पणो चरिमखंडयमेतद्धाणं गंतूण चरिमापुव्वफद्दयादिवग्गणाओ सरिसीओ समुप्पज्जंति त्ति घेत्तव्वं । विशेषार्थ-अंक संदृष्टिकी अपेक्षा क्रोध आदि चारों प्रथम स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाओंका क्रमसे प्रमाण यह है-१०५, ८४, ७०, ६० । यहाँ क्रोधसे मानकी प्रथम वर्गणामें २१ का अन्तर है । यथा-१०५ - ८४ = २१ । यहाँ ४ का मानको प्रथम वर्गणा ८४ में भाग देनेपर भी २१ लब्ध आते हैं। अतः यह चार विशेषका प्रमाण लानेके लिए भागहार है यह निश्चित होता है। अब यह जो भागहार ४ है इसमें एक और मिला देनेपर ५ होते हैं। अतः मानके प्रथम स्पर्धकसे ५ स्थान ऊपर जाकर पाँचवें स्पर्धककी आदि वर्गणा लें और विशेषका प्रमाण लानेके लिए जो ४ भागहार कहा है उतने स्थान क्रोधके प्रथम स्पर्धकसे ऊपर जाकर जो चौथा स्पर्धककी आदि वर्गणा है उसे ले लें तो इन दोनों वर्गणाओंका प्रमाण समान होगा। यथा क्रोधके प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा १०५ ४ ४ = ४२० मानके प्रथम स्पर्धाककी आदि वर्गणा ८४४५ = ४२० इसी प्रकार उक्त विधिको ध्यानमें रखकर मान-माया तथा माया-लोभके कितने स्थान ऊपर चढ़कर वहाँ प्राप्त हुए स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएँ समान होती हैं इसे स्पष्ट कर लेना चाहिये । इसके लिये मान संज्वलनके चढ़े हुए स्थानोंको लानेके अभिप्रायसे विशेषको लानेके लिये भागहार ४ में १ मिलाया था। उसी प्रकार यहाँ मानसंज्वलनके चढ़े हुए स्थान ५ में १ मिलाकर मायासंज्वलनके चढ़े हुए स्थान ६ और उसमें भी १ मिला देनेपर लोभसंज्वलनके ऊपर चढ़े हुए स्थान ७ ले आना चाहिये । इस प्रकार मायाके ६ और लोभके ७ स्थान पर चढ़कर ६वें और ७वें स्पर्षकको आदि वर्गणाका प्रमाण भी उतना ही होता है । यथा मानके प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा ८४४५ = ४२० मायाके , " ७०४६ = ४२० लोभके , " " ६०४७ = ४२० $ ४७६. उससे ऊपर पुनरपि इतने स्थान जाकर दूसरी बार वहाँ प्राप्त स्पर्धकोंकी वर्गणाएँ सदृश होती हैं । यथा क्रोधके दूसरी बार प्राप्त प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणा १०५४ (४ + ४) ८-८४० मानके , " ८४४ (५+५) १०-८४० मायाके ७०४(६+ ६) १२-८४० लोभके ६०४ (७+७) १४ = ८४० $ ४७७. इस प्रकार अपने-अपने चढ़े हुए स्थानोंके प्रमाणको एक काण्डक करके द्विचरम काण्डकप्रमाण स्थान जाकर सबकी आदि वर्गणाएँ सदृश हो जाती हैं यहाँतक ले जाना चाहिये, उससे आगे अपने-अपने अन्तिम काण्डकप्रमाण स्थान जाकर अन्तिम अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएँ सदृश उत्पन्न होती हैं यह ग्रहण करना चाहिये । यथा ४४.
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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