Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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भाग-14
अस्सकण्णकरण परूवणा
मोत्तूण तत्तो उवरिमफद्दयाणं चेव पदेसग्गस्सासंखेज्जदिभागमोकड्डियूणापुव्वफद्दयाणिणिव्वत्तेदित्ति के वि भणति, तण्ण घडदे, तहा इच्छिज्जमाणे अपुव्वफव्हएस णिवदमाणदव्वस्स सयलदव्वस्साणंतिमभागत्तेण पुव्वापुव्वफद्दसु एयगोच्छापत्तदो । कुदो एवमिदि चे ? जहण्णा इच्छावणव्यंतरे अनंताणं गुणहाणीणमत्थित्तोवलंभेण तत्तो उवरि दव्वस्स सयलदव्वाणंतिम भागत्तदंसणादो। ण च एवंविहं दव्वमोकड्डियूण पुन्वापुव्वफद्दयसु एगगोवुच्छायारेण णिक्खिविदुं संभवो अत्थि, ताणुवलंभादो । तम्हा अविसेसेण सव्वाणि पुव्वफद्दयाणि ओकड्डियूण समयाविरोहेणापुव्वफद्याणि करेदित्ति घेत्तव्वं । कधं पुण हेट्ठा सव्वत्थ अणुभागोकडणा अइच्छावणणियमाविणाभाविणी एत्थुद्दे से अण्णहा पयट्टदि ति णासंकणिज्जं, सहावदो चैव एदम्मि विसये तहाविहणियमपरिच्चाएण ओकडणाए पवृत्तिअब्भुवगमादो 1- अहवा पुव्वफद्दयादिवग्गणादो हेट्ठा अनंताणं ददयाणं विसयमुल्लंघियूण तदणंतिमभागे अपुव्वफद्दयाणिणिव्वत्तेमाणस्स तेत्तियमेत्ताणं फट्ट्याणं सरूवेणापरिणमिय तत्तो डिमाणुभाग सरूवेण परिणमणं चेवाइच्छावणमिदि एत्थ गहेयव्वं, अण्णहा पुव्वत्तदोसप संगादो । एवमेत्तिएण पबंधेण अस्सकण्णकरणकारयस्स पढमसमए पुष्वापुव्वछोड़कर उनसे उपरिम स्पर्धकोंसम्बन्धी ही प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना करता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं ?
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समाधान- किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता, क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर अपूर्व स्पर्धकों में पतित होनेवाले द्रव्यके समस्त द्रव्यके अनन्तवें भागप्रमाण होनेसे पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों की एक गोपुच्छा नहीं बन सकती ।
शंका- किस कारण से ऐसा है ?
समाधान — क्योंकि जघन्य अतिस्थापना के भीतर अनन्त गुणहानियोंके अस्तित्वकी उपलब्धि होनेके कारण उससे ऊपर जितना द्रव्य बचता है वह समस्त द्रव्यके अनन्तवें भागप्रमाण ही देखा जाता है । परन्तु इस प्रकारके द्रव्यका अपकर्षण करके पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें एक गोपुच्छारूपसे निक्षिप्त करना सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा उपलब्ध नहीं होता । इसलिये अविशेषरूप से सभी पूर्व स्पर्धकोंका अपकर्षण करके समय के अविरोधपूर्वक अपूर्व स्पर्धकोंको करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
शंका- यदि पूर्वोक्त कथन नहीं माना जाय तो नीचे सर्वत्र जिसका अतिस्थापनाके साथ नियमसे अविनाभाव सम्बन्ध है ऐसी यह अनुभाग - अपकर्षणा इस स्थानपर कैसे प्रवृत्त होती है ? समाधान—स्वभावसे ही इस स्थानपर उस प्रकारके नियम के परित्यागपूर्वक अपकर्षणकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है । अथवा पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे नीचे अनन्त स्पर्धकोंके विषयको उल्लंघन कर उनके अनन्तवें भागमें अपूर्व स्पर्धकों की रचना करते हुए तावन्मात्र स्पर्धकोंस्वरूपसे परिणमन न करके उससे नीचे के अनुभागरूपसे परिणमना ही अतिस्थापना है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा पूर्वोक्त दोषका प्रसंग प्राप्त होता है ।
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इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा अश्वकर्णकरणकारकके प्रथम समयमें पूर्व और अपूर्व
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