Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* विदियसमए अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि । विदियाए वग्गणाए विसेसहीणं । एवमणंतरोत्रणिधाए विसेसहीणं दिज्जदि ताव जाव जाणि विदियसमए अपुत्र्वाणि अपुग्वफद्दयाणि कदाणि तेसिं चरिमादो वग्गणादो त्तिं ।
९५०३. विदियसमये णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए बहुअं पदेसग्गं णिक्खिविपूण तत्तो उवरिमासु वग्गणासु विदिय समयणिव्वत्तिज्जमाणापुब्वफद्दय चरिमवग्गणपज्जेतासु जहाकममवट्ठिदेगेगवग्गणविसेसेण हीणं काढूण पदेसणिक्खेवं कुणदि त्ति वृत्तं होइ । एत्तो पुण पढमसमए णिव्वत्तिदाणमपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणा रसो पदेसणिक्खेवो होदि त्ति आसंकाए सुत्तमुत्तरं भणइ -
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* तदो चरिमादो वग्गणादो पढमसमए जाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि तेसिमादिवग्गणाए दिज्जदि पदेसग्गमसंखेज्जगुणहीणं ।
$ ५०४. एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जहा पढमसमए पुव्त्रापुव्वफद्दयसंधी अथवासा या तहा चैव कायव्वा, विसेसाभावादो। एत्तो उवरि सन्वत्थानंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण पदेसविण्णासं करेदि, ण तत्थ कोवि भेदो त्ति पदुप्पायणफलो उत्तरमुत्तारंभो
* दूसरे समय में अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा में बहुत प्रदेशपुंज देता है, दूसरी वर्गणा में विशेष हीन प्रदेशपुंज देता है। इस प्रकार इस समय जो अपूर्व अपूर्व स्पर्धक किये गये उनमें, अनन्तरोपनिधा की अपेक्षा उनकी अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक, उत्तरोत्तर विशेष हीन - विशेष हीन प्रदेशपुंज देता है ।
$ ०३. दूसरे समयमें रचे जानेवाले अपूर्व स्पर्धकोंकी आदिवर्गणा में बहुत प्रदेशपु ंजका निक्षेप करके उससे दूसरे समय में रची जानेवाली अपूर्व स्पर्धकों की अन्तिम वर्गणा प्राप्त होने तक उपरिम सभी वर्गणाओंमें विशेष हीन विशेष होन प्रदेशोंका निक्षेप करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब इसके बाद प्रथम समय में रचे गये अपूर्व स्पर्धकों को आदिवर्गणामें किस विधि से प्रदेशों का निक्षेप होता है ऐसी आशंका होनेपर आगेके सूत्रको कहते हैं
* तत्पश्चात् अन्तिम वर्गणासे प्रथम समय में जो अपूर्व स्पर्धक किये गये उनकी आदि वर्गणा में असंख्यातगुणा हीन प्रदेशपुंज देता है ।
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$ ५०४. इस सूत्र के अर्थका कथन करनेपर जिस प्रकार पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों की सन्धिमें अर्थकी व्याख्या की उसी प्रकार करनी चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है । अब आगे सर्वत्र अन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तवें भागप्रमाण विशेष हीन प्रदेशपुजको निक्षिप्त करता है, उसमें कोई भेद नहीं है इस बातका कथन करनेके लिये आगे सूत्रका आरम्भ
१. ताप्रती अनुवाणि फट्ट्याणि इति पाठः । २. ता० क० आ० प्रतिषु अनुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि तेसि चरिमादो वग्गणादोत्ति एवं सूत्रपाठः नोपलभ्यते ।