Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 409
________________ ३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे याणि विसेसाहियाणि । मायाए अपुवफद्दयाणि विसेसाहियाणि । लोभस्स अपुवफद्दयाणि विसेसाहियाणि । ६५२१. सुगममेदं, पुव्वमेव परूविदत्तादो । * एयपदेसगुणहाणिहाणंतरफद्दयाणि असंखेजगुणाणि । ५२२. किं कारणं ? एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणि चेवापुव्वफद्याणि होति, तेणेयगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणि तत्तो असंखेज्जगुणाणि जादाणि । एत्थ गुणगारो अपुव्वफद्दयागमण गुणहाणीए ठविदभागहारमेत्तो। * एयफद्दयवग्गणाओ अणंतगुणाश्रो । ५२३. पुव्वफद्दएसु वा अपुव्वफद्दएसु वा एयफद्दयवग्गणाओ अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणसिद्धाणंतभागपमाणाओ होइंग सरिसीओ व होति । एदाओ एयगुणहाणिट्ठाणंतरफद्एहितो अणंतगुणाओ होंति त्ति भणिदं होइ । * कोधस्स अपुवफद्दयवग्गणाओ अणंतगुणात्रो। $ ५२४. किं कारणं ? हेट्ठिमाओ एयफद्दयवग्गणाओ । एदाओ पुणो सव्वापुव्वफद्दयपडिबद्धाओ तदो अणंतगुणाओ जादाओ। को गुणगारो ? एयगुणहाणिट्ठाणंतरस्पर्धक विशेष अधिक हैं। उनसे मायासंज्वलनके अपूर्व स्पर्धक विशेष अधिक हैं। उनसे लोभसंज्वलनके अपूर्व स्पर्धक विशेष अधिक हैं। $ ५२१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका पहले ही कथन कर आये हैं। * उनसे एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धक असंख्यातगुणे हैं । $ ५२२. क्योंकि एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व स्पर्धक होते हैं, इसलिये एक गुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धक उनसे असंख्यातगुणे हो जाते हैं। यहाँपर अपूर्व स्पर्धकोंको लानेके लिये जो गुणकार है वह गुणहानिके लिये स्थापित किये गये भागहारप्रमाण है। * उनसे एक स्पर्धककी वर्गणाएँ अनन्तगुणी हैं। ६.५२३. पूर्व स्पर्धकोंमें और अपूर्व स्पर्धकोंमें एक स्पर्धककी वर्गणाएँ अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होकर सदृश हो होती हैं, अतः ये एक गुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकोंसे अनन्तगुणी हो जाती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनसे क्रोधसंज्वलनके अपूर्व स्पर्धकोंकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी हैं । ६५२४. क्योंकि अधस्तन (पूर्वको) एक स्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाएँ हैं और ये समस्त अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी हैं, इसलिए पूर्वकी वर्गणाओंसे ये अनन्तगुणी हो गई हैं। शंका-गुणकार क्या है ?

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