Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 390
________________ खवगसेढीए अपुव्वफद्दयपरूवणा ३४९ $ ४८२. एत्थ अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए पदेसग्गं बहुअं देदिति बुत्ते पुव्वफद्दयादिवग्गणदव्वमेत्तं पुणो अपुत्रफद्दय वग्गणसलाग मेत्तवग्गणविसेसेहिं समहियं कादूण णिक्खिवदि त्ति धेत्तव्यं, अण्णहा पुन्वापुव्व फद्दयसु एयगोवुच्छासेटीए अणुपत्तदो । तो विदियादिवग्गणासु दोगुणहाणिपडिभागिय मेगेगवग्गणविसेसमणं तराणंतरादो हीणं काढूण णेदव्वं जाव अपुव्वफद्दयाणं चरिमवग्गणाति । एवं कदे अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गगाए णिसित्तपदेसग्गादो तेसिं चेत्र चरिमवग्गणाए णिवदिपदेसग्गं चडिदद्धाणमेत्तवग्गणविसेसेहिं परिहीणं होदि । होतं पि आदिवग्गणाए असंखेज्जदिभागमेत्तं चैव परिहीणमिदि घत्तव्वं, अपुव्वफद्दयद्वाणस्स एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरस्सासंखेज्जभागप्रमाणत्तादो । तदो अपुव्वफद्दयवग्गणासु अनंतशेवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण परंपरोवणिधाए च आदिवग्गणादो चरिमवग्गणाए असंखेज्जदिभागहीणं णिक्खिवदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि अपुब्वफद्दयाणं चरिमवग्गणाए णिसित्त पदेसग्गादो पुरुवफद्दयाणमादिवग्गणाए णिसिंचमाणं पदेसग्गस्सा संखेज्जगुणहीणं होदि । तत्तो परमणंतरोवणिधाए अनंतभागहीणं काढूण णिसिंचदिति एदस्स अत्थविसेसस्स जाणावणमुत्तरमुत्तारंभो * तदो चरिमादो अपुव्वफद्दयवग्गणादो पढमस्स पुत्र्वफद्दयस्स आदिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणं देदि । तदो विदियाए पुव्वफद्दयवग्गणाए $ ४८२. यहाँ अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें बहुत प्रदेशपुंजको देता है ऐसा कहनेपर पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके प्रमाणको अपूर्व स्पर्धकोंके वर्गणाशलाकाप्रमाण वर्गणाविशेषोंसे अधिक करके निक्षिप्त करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों में एक गोपुच्छाश्रेणिकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । इससे आगे द्वितीय आदि वर्गणाओंमें दो गुणहानिप्रमाण प्रतिभाग के अनुसार एक-एक वर्गणाविशेषको अनन्तर तदनन्तर क्रमसे हीन करके अपूर्व स्पर्धकों की अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिये । ऐसा करनेपर अपूर्व सर्धककी आदि वर्गणा में निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे उन्हींको अन्तिम वर्गणामें निक्षिप्त प्रदेशपुरंज जितने स्थान आगे गये हैं उतने वर्गणाविशेषोंसे हीन होता है । ऐसा होता हुआ भो आदि वर्गणासे असंख्यातवें भागप्रमाण ही होन होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि वह अपूर्व स्पर्धकस्थानसम्बन्धी एक गुणहानिस्थानान्तरके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । इसलिए अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंमें उत्तरोत्तर अनन्तवें भागप्रमाण विशेष हीन प्रदेशपु ंजका निक्षेप करता है और परम्परोपनिधाकी अपेक्षा आदिवर्गणासे अन्तिम वर्गणामें असंख्यातवें भागहीन प्रदेश का निक्षेप करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । तथा अपूर्व स्पर्धकों की अन्तिम वर्गणाएँ निक्षिप्त हुए प्रदेशपु जसे पूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणा में निक्षिप्त होनेवाला प्रदेशपुरंज असंख्यातगुणा हीन होता है। उससे आगे पूर्व स्पर्धकोंकी द्वितीयादि वर्गणाओंमें परम्परोपनिधाकी अपेक्षा अनन्तभाग होन करके प्रदेशपुजको निक्षिप्त करता है इस प्रकार इस अर्थ - विशेषका ज्ञान करानेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * उसके बाद अपूर्व स्पर्धककी अन्तिम वर्गणासे प्रथम पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणामें. असंख्यातगुणा हीन प्रदेशपुंज देता है। उससे पूर्व स्पर्धककी दूसरी वर्गणामें

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