Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ४७२. संपहि कोहादिसंजलणाणं जाणि अपुव्वफद्दयाणि तेसिमादिफद्दयाणमादिवग्गणाओ किमण्णोण्णं सरिसीओ आहो विसरिसीओ त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणटुं तेसिं चेव चरिमफद्दयादिवग्गणाणं सरिसासरिसभावगवेसणटुं च उवरिमप्पाबहुअसुत्तमाह- .
* तेसिं चेव पढमसमए णिव्वत्तिदाणमपुव्वफयाणं लोभस्स आदिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदग्गं थोवं । मायाए आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । कोहस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं। एवं चदुग्हं पि कसायाणं जाणि अपुग्धफद्दयाणि, तत्थ चरिमस्स अपुव्वफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं चदुण्हं पि कसायाणं तुल्लमणंतगुणं ।
६४७३. एत्थ ताव एदेण सुत्तेण परूविदप्पाबहुअविसये सिस्साणं सुहावबोहजणण] कोहादिसंजलणपडिबद्धाणमपुव्वफद्दयादिवग्गणाणमेसो संदिट्ठिविण्णासो १०५, ८४, ७०, ६० । एदाओ लोभादिपरिवाडीए जहाकममणंतभागभहियाओ दट्ठव्वाओ। एवमेदाओ परिवाडीए ठविय अप्पप्पणो अपुव्वफद्दयसलागाहिं गुणिदे
४७२. अब क्रोधादि संज्वलनोंके जो अपूर्व स्पर्धक हैं उनके आदि स्पर्धकोंकी आदिवर्गणाएँ क्या परस्पर सदृश होती हैं या विसदृश इस प्रकार इस अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिए उन्हींके अन्तिम स्पर्धकोंकी आदि-वर्गणाओंके सदृशपने और विसदृशपनेका अनुसन्धान करनेके लिए आगेके अल्पबहुत्वसूत्रको कहते हैं.. * उन्हीं चारों संज्वलनोंके प्रथम समयमें जो अपूर्व स्पर्धक निष्पन्न किये जाते हैं, उनमेंसे लोमकी आदि वर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपुंज सबसे थोड़ा होता है । उससे मायाकी आदि वर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपुंज विशेष अधिक होता है। उससे मानकी आदि वर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपुंज विशेष अधिक होता है और उससे क्रोधकी आदि वर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपुज विशेष अधिक होता है । इस प्रकार चारों ही कषायोंके जो अपूर्व स्पर्धक निष्पन्न किये जाते हैं उनमेंसे अन्तिम अपूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपज चारों ही कषायोंका समान होनेके साथ (प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदप्जसे) अनन्तगुणा होता है ।
६४७३. यहाँपर सर्वप्रथम इस सूत्रके द्वारा प्ररूपित अल्पबहुत्वके विषयमें शिष्योंको सुखपूर्वक ज्ञान उत्पन्न करनेके लिये क्रोधादि संज्वलनोसे प्रतिबद्ध अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी आदि
___ क्रोध मान माया लोभ । ये लोभसे लेकर वर्गणाओंका यह संदृष्टि विन्यास है- को
- १०५ ८४ ७० ६० । परिपाटी क्रमसे अनन्तवें भाग अधिक जानने चाहिये । इस प्रकार परिपाटी क्रमसे स्थापित करके अपनी-अपनी अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी शलाकाओंसे गुणित करनेपर भी सभी संज्वलनोंके अन्तिम