Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए पढमसमए अस्सकण्णकरणकारगपरूवणा ३२३ वत्करणमश्वकर्णकरणम् । यथाश्वः अग्रात प्रभृत्यामूलात् क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेदमपि करणं क्रोधसंज्वलनात्प्रभृत्यालोभसंज्वलनायथाक्रममनंतगुणहीनानुभागस्पर्धकसंस्थानव्यवस्थाकारणमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । संपहि आदोलकरणसण्णाए अत्थो वुच्चदे-आदोलं णाम हिंदोलं। आदोलमिव करणमादोलकरणं । यथा हिंदोलत्थंमस्स वरत्ताए च अंतराले तिकोणं होदण कण्णायारेण दीसइ एवमेत्थ वि कोहादिसंजलणाणमणुमागसण्णिवेसो कमेण हीयमाणो दीसह त्ति एदेण कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोलकरणसण्णा जादा । एवमोवट्टणमुव्वट्टणकरगेत्ति एसो वि पज्जायसद्दो अणुगयट्ठो दट्ठन्वो कोहादिसंजलणाणमणुभागविण्णासस्स हाणि-वड्डिसरूवेणावट्ठाणं पेक्खियण तत्थ ओवडणुव्वट्टणसण्णाए पुव्वाइरिएहिं पयट्टाविदत्तादो । संपहि एवंविहमस्सकण्णकरणं कदमम्मि अवत्थंतरे एसो आढवेदि त्ति एदिस्से पुच्छाए जिरारेगीकरणहमिदमाह
* छसु कम्मेसु संछुद्धेसु से काले पढमसमयअवेदो, ताधे चेव पढमसमयअस्सकण्णकरणकारगो।।
$ ४३८. छस्सु कम्मेसु पुरिसवेदचिराणसंतकम्मेण सह कोहसंजलणे सव्वसंकमेण संछुद्धेसु तदो से काले पढमसमयअवेदभावे वट्टमाणो ताधे चेव पढमसमयअस्सकण्णकरणकारगो णाम होदि । तत्तो पाए कोहादि-संजलणाणमस्सकण्णाकारेणाणुभागसंतकम्मस्स कंडयघादवसेण करेदुमाढत्तत्तादो। संपहि तदवत्थाए कोहादिसंजलअश्वकर्णके समान जो करण वह अश्वकर्णकरण है। जिस प्रकार अश्व आगेसे लेकर अर्थात् मूलसे लेकर क्रमसे घटता हुआ दिखाई देता है उसी प्रकार यह करण भी क्रोधसंज्वलनसे लेकर लोभसंज्वलनतक क्रमसे अनन्तगुणे हीन अनुभागके आकाररूपसे व्यवस्थाका कारण होकर अश्वकर्णकरण इस नामसे लक्षित होता है। अब आदोलकरण संज्ञाका अर्थ कहते हैं-आदोल नाम हिंडोलाका है। आदोलके समान करणका नाम आदोलकरण है। जिस प्रकार हिंडोलेके खम्भे और रस्सी अन्तरालमें त्रिकोण होकर कर्णरेखाके आकाररूपसे दिखाई देते हैं उसी प्रकार यहाँपर भी क्रोधादि कषायोंके अनुभागका सन्निवेश क्रमसे हीयमान दिखाई देता है। इस कारण अश्वकर्णकरणकी आदोलकरण संज्ञा हो गई है। इसी प्रकार अपवर्तना-उद्वर्तनाकरण यह पर्यायवाची शब्द भी अनुगत अर्थवाला जानना चाहिये, क्योंकि क्रोधादि संज्वलनोंके अनुभागका विन्यास हानि-वृद्धिरूपसे अवस्थित देखकर उसकी पूर्वाचार्योंने अपवर्तना-उद्वर्तना संज्ञा प्रवर्तित की है। अब इस प्रकारका यह अश्वकर्णकरण किस दूसरी अवस्थाके होनेपर आरम्भ होता है इस प्रकारकी पृच्छाके होनेपर निःशंक करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
* छह नोकषाय कर्मोंके संक्रमित होनेपर तदनन्तर समयमें प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी होकर उसी समय ही प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारक होता है।
६४३८. पुरुषवेदके चिरकालीन सत्कर्मके साथ छह नोकषाय कर्मोके सर्व संक्रमणके द्वारा क्रोधसंज्वलनमें संक्रान्त हो जानेपर इसके बाद तदनन्तर समयमें प्रथम समयसम्बन्धी अवेदक भावमें विद्यमान यह जीव उसी समय प्रथम समयवर्ती अश्वकर्णकरणकारक नामवाला होता है, क्योंकि वहाँसे लेकर क्रोधादि संज्वलनोंका अश्वकर्णके आकाररूपसे जो अनुभागसत्कर्म है उसका