Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
घेत्तू सेसा देसामा सयभावेण विहासणं कुणमाणो विहासागंथमुत्तरं भणह
* विहासा ।
६३५०. सुगमं ।
* जहा ।
३५१. सुगमं ।
* द्विविसंतकम्मस्स अग्गट्ठिदीदो समयुत्तरद्विदिं बंधमाणो तं द्विदिसंतकम्मअग्गहिदिं ण उक्कडुदि ।
९ ३५२. एसा उक्कड्डणाए अट्ठपदपरूवणा खवगस्स उक्कड्डणापरूवणावसरे तप्प संगेणेव संसारावत्थाए वि परूवेदुमाढत्ता, अण्णहा खवगसेढीए संतकम्मादो अमहियट्ठिदिबंघस्स सव्वकालमसंभवेण पयदपरूवणाए अणुववत्तीदो । संपहि एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा – ट्ठिदिसंतकम्मस्स अग्गट्ठिदीदो समयुत्तरडिदि बंधमाणो तं ट्ठिदिसंतकम्मस्स अग्गट्ठिदिमुक्कड्डियूण संपहि बज्झमाणाए एगट्टिदीए उवरिण संछुहदि । किं कारणं ? अइच्छावणाणिक्खेवाणमेत्थासंवेण उक्कड्डापत्तिविरोहादो । एवं वि समयुत्तरादिट्ठिदिबंधेसु वि वट्टमाणो संतकम्मअग्गट्ठिदिं ण उक्कड्डदि चेवेत्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भण
ही प्रधानरूपसे ग्रहण कर शेषकी देशामर्षकरूपसे विभाषा करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं
* अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं ।
९ ३५०. यह सूत्र सुगम है ।
* जैसे ।
$ ३५१. यह सूत्र सुगम है ।
* स्थितिसत्कर्मकी अग्रस्थितिसे एक समय अधिक स्थितिको बाँधता हुआ स्थितिसत्कर्मकी उस अग्रथितिको उत्कर्षित नहीं करता है ।
९ ३५२. यह उत्कर्षण विषयक अर्थपदकी प्ररूपणा क्षपकके उत्कर्षणकी प्ररूपणा करते समय उस प्रसंगसे संसार अवस्थामें भी प्ररूपित करनेके लिये आरम्भ हुई है, अन्यथा क्षपकश्रेणिमें सत्कर्मसे अधिक स्थितिबन्ध सदा ही असम्भव होनेसे प्रकृत प्ररूपणा नहीं बन सकती है । अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं। वह जैसे -स्थितिसत्कर्मकी अग्रस्थितिसे एक समय अधिक स्थितिको बाँधता हुआ स्थितिसत्कर्मकी उस अग्रस्थितिको उत्कर्षित करके वर्तमानमें बँधनेवाली सत्कर्म से एक समय अधिक स्थितिमें निक्षिप्त नहीं करता है, क्योंकि यहाँपर अतिस्थापना और निक्षेप असम्भव होनेसे उत्कर्षणकी प्रवृत्ति होने में विरोध है । इसी प्रकार दो समय अधिक आदि स्थितिबन्धों में भी विद्यमान जीव सत्कर्मकी अग्रस्थितिको उत्कर्षित नहीं ही करता है इस बातका कथन करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं—