Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
महच्छावणा किस्से वि द्विदीए आवलिया, किस्से वि द्विदीए समयुत्तरा, किस्से वि द्विदीए विसमयुत्तरा, किस्से वि द्विदीए तिसमयुत्तरा, एवं णिरंतर मइच्छावणाद्वाणाणि जाव उक्कस्सिया अइच्छावणाति ।
$ ३६४. आबाहन्भंतरसमयाहियचरिमावलियमेत्तीणं ट्ठिदीणमावलियमेत्ता चेव अइच्छावणा होदि । तत्तो हेहिमाणं द्विदीर्ण समयुत्त रकमेण पच्छाणुपुव्वीए जहाकममइच्छावणावुड्डी दट्ठव्वा जाव उदयावलियबाहिराणंतरद्विदीए सम्बुक्कस्सियाए अइच्छावणा होतॄण पज्जवसिदा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो ।
उनकी अतिस्थापना किसी स्थितिकी एक आवलिप्रमाण, किसी भी स्थितिकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण, किसी भी स्थितिकी दो समय अधिक एक आवलिप्रमाण तथा किसी भी स्थितिका तीन समय अधिक एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है, इस प्रकार उत्कृष्ट अतिस्थापनाके प्राप्त होनेतक अन्तरके बिना ये अतिस्थापनाके सब स्थान जानने चाहिये ।
$ ३६४. आबाधा के भीतर एक समय अधिक अन्तिम आवलिप्रमाण स्थितियोंकी एक आवलिप्रमाण ही अतिस्थापना होती है । परन्तु उससे नीचेकी स्थितियोंकी एक एक समय अधिकके क्रमसे पश्चादानुपूर्वीसे यथाक्रम अतिस्थापनाकी वृद्धि तबतक जाननी चाहिये जब जाकर उदयावलिके बाहरकी अनन्तर स्थितिकी सर्वोत्कृष्ट अतिस्थापना होकर वह पर्यवसानको प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार यह इस सूत्रका प्रकृतमें समुच्चयरूप अर्थ है ।
विशेषार्थ - इस बातका तो पहले ही स्पष्टीकरण कर आये हैं कि आबाधाके ऊपर जितनी सवस्थितियाँ होती हैं उनका उत्कर्षण होनेपर सर्वत्र एक आवलिप्रमाण ही अतिस्थापना प्राप्त होती है । मात्र आबाधाके भीतर जो सत्त्वस्थितियां होती हैं उनकी अतिस्थापनाके प्राप्त होनेका क्रम क्या है इसी बातका यहाँ समाधान किया गया है। खुलासा इस प्रकार है- यह तो पहले ही स्पष्ट कर आये हैं कि उत्कर्षित द्रव्यका आबाधा के भीतर निक्षेप नहीं होता । अतः आबाधाके भीतर प्राप्त हुई अधिकसे अधिक किस सत्त्वस्थिति लेकर उसका उत्कर्षण करनेपर अतिस्थापना एक आवलिसे लेकर कितनी प्राप्त होती है इसी बातका उत्तर देते हुए यह बतलाया गया है कि जिस स्थान पर तत्काल बँधनेवाले कर्मकी आबाधा समाप्त होती है उससे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थान नीचे जाकर जो सत्त्व स्थिति अवस्थित है उससे लेकर स्थिति विवक्षित परमाणुपुंजका उत्कर्षण करनेपर पूरी एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होकर आबाधाके ऊपर प्रथम व द्वितीय आदि निषेकसे लेकर क्रमसे उस उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप होता है । इससे आगे सर्वत्र अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण ही प्राप्त होगी यह स्पष्ट है । मात्र पश्चादानुपूर्वीसे विचार करनेपर अतिस्थापना के प्रमाण में एक समय, दो समय आदिकी वृद्धि होती जाती है । समझो जहाँ उत्कृष्ट आबाधा समाप्त हुई उससे दो समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थान नीचे जाकर जो सत्त्वस्थिति है उसके विवक्षित परमाणुपुंजका उत्कर्षण करनेपर अतिस्थापना एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्राप्त होगी । उस सत्त्वस्थितिसे एक समय नीचे जाकर उसके विवक्षित परमाणुपुंजका उत्कर्षण करनेपर अतिस्थापना दो समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्राप्त होगी । इसी प्रकार आबाधा के भीतर क्रमसे जितने-जितने स्थान नीचे